Friday, 22 June 2018

श्रील रूप गोस्वामी पाद की महिमा

*श्रील रूप गोस्वामी पाद की महिमा*

श्रील् रूप गोस्वामी को भक्ति रत्नाकर ग्रँथ में 'कोटि समुद्र गम्भीर'कहा गया है।

श्रील् रूप गोस्वामी का प्रेम कोटि समुद्र समान गहरा था।

श्रील् रूप गोस्वामी का प्रेम इसी प्रकार अगाध था,भाव उठते थे पर बाहर प्रकाशित नही होते थे।दूसरे भक्त जो उनके आसपास होते भाव अतिरेक से मूर्छित हो जाते,उन्माद की भांति आचरण करते ,परन्तु श्रील् रूप गोस्वामी जी में बाह्य प्रकाश नही होता।

उनका असाधारण धैर्य (यहां विशेष अर्थ है भावों को धारण करने की अद्वितीय क्षमता) एकबार वैष्णव समाज मे विशेष रूपसे प्रकाशित हुई।

सारा वैष्णव समाज एकत्रित था,श्रीश्री राधाकृष्ण के विरह का वर्णन चल रहा था।सारा वैष्णव समाज रो रोकर भूमि में लोट रहा था।

श्रील् रूप गोस्वामी के हृदय में अग्नि शिखा की भांति विरह अग्नि धू धू कर रही थी।पर बाहर प्रकाश नही था।अद्भुत स्थैर्य था उनमें।

(श्याम सुंदर का एक गुण है स्थैर्य,जो श्रील् रूप गोस्वामी में कूट कूटकर भरा था।अविचल अटल प्रेम)

कुछ भक्तों को आश्चर्य हुआ,कुछ को शंका हुई कि श्रील् रूप गोस्वामी इतने स्थिर कैसे ,क्या इनमें ज़रा भी विरह व्यथा नही?अगर है तो ये विकार स्वतः प्रकाश हैं,दिखने चाहिए, दिख क्यों नही रहे?

तभी कोई भक्त पीछेसे श्रील् रूप गोस्वामी की ओर आया।थोड़ा पास आते ही उनके तप्त शरीर की आंच भक्त को लगने लगी,मानो धधकती ज्वाला के निकट चले गए हों।अति आश्चर्य से थोड़ा और निकट गया तो श्रील् रूप गोस्वामी जी की श्वास उनकी देह पर पड़ी।उत्तप्त श्वास से उस भक्त के शरीर पर फफोले पड़ गए।

ऐसी विरह अग्नि को भीतर दबाए श्रीरूप महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य कर निरन्तर ग्रँथ प्रणयन और लुप्त तीर्थ उद्धार में लगे रहते।

श्रील् रूप गोस्वामी के लिए श्री स्वरूप दामोदर कहते हैं कि -"ये रूप श्रीचैतन्य का प्रिय स्वरूप ही है"

श्रील कविराज गोस्वामी श्रील रूप गोस्वामी के लिए कहते हैं-

*प्रियस्वरूपे दयित स्वरूपे प्रेम स्वरूपे सहजाभिरूपे।*
*निजानुरूपे प्रभुरेकरूपे ततान स्वविलास रुपे।।*

अर्थात-श्रील् रूप गोस्वामी जी महाप्रभु के प्रिय पात्र थे, प्रिय स्वरूपतुल्य थे, उनसे अभिन्न रूप थे, जो श्रीकृष्ण के विलास तत्व को वर्णन करने में पूर्ण समर्थ थे, उनमे महाप्रभु ने प्रेम शक्ति संचारित की थी।

श्रील् रूप गोस्वामी जी तो निकुंजलीला के नित्य साक्षी हैं,श्रीरूप मंजरी जी हैं, प्रेम तत्व के निगूढतम रहस्य को जानते हैं,फिर उनमें महाप्रभु को प्रेम संचार करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?

यहां महाप्रभु मानो ये कह रहे हो -"रूप!प्रेम का अनुभव कर अपनेआप को संयत रखकर तुम्हे वर्णन करना पड़ेगा।विचलित न होना"

ऐसा विचार कर आलिंगन किया।श्रीकृष्ण चैतन्य की सुवर्ण गौर कांति श्रीराधा ही है,क्योकि श्रीराधा अपने भावसे भिन्न नही।मानो श्रीराधा ही श्रीरूप मंजरी जी को आलिंगन कर अनुमति दे रही हो-"जाओ रूप।मेरे बिना तुम लिख नही पाओगे।मेरे बिना उस प्रेम को तुम संभाल नही पाओगे।आलिंगन रूप में मैं हूँ तुम्हारे साथ"

Monday, 7 May 2018

श्रीस्वामी राधाचरणदास देव जू

अनंत श्रीविभूषित श्रीस्वामी राधाचरणदास देव जू महाराज का प्राकट्य मथुरा के माथुर चतुर्वेदी परिवार में सम्वत 1974 में चैत्र कृष्णा एकादशी को हुआ...आपके पूर्वाश्रम के पिताजी का नाम श्रीभगवानदास जी एवं माता जी का नाम श्रीमती नर्मदा देवी था...उन्होंने आपके बाल्यकाल का नाम रंगनाथ रखा..जिसे प्यार में सब रंगा कहकर पुकारने लगे...बाल्यकाल से ही आपमें भक्ति के संस्कार उत्पन्न होने लगे, 14-15 वर्ष की आयु में आप अपने समवयस्क युवाओं के साथ मथुरा में मुरलीधर की बगीची में व्यायाम के लिए जाते परंतु वहां रहकर आप व्यायाम ना करके श्रीबिहारी जी का भजन करते आपका अधिक समय नाम जप में ही बीत जाता...इस स्थान से आपका लगाव पूर्व से ही रहा क्योंकि यहीं पर श्रीटटियास्थान के हरिदासी आचार्य परम्परा के पंद्रहवें महंत, आपके दीक्षा गुरुदेव श्रीस्वामी रणछोड़दास देव जू महाराज ने भी भजन किया था...संध्या समय वहाँ पर आप एक वृद्ध बिलन्दा चौबे जी को सस्वर रामायण जी का पाठ सुनाया करते और दीवारों पर राम नाम अंकित करते...बालक रंगनाथ जी बचपन से ही बड़े कोमल और संकोची स्वभाव के रहे, अपनी माता की सहायता की भावना से आप घर से बाहर नल से जल भी भरकर लाते वहां समवयस्क कन्याओं को जल भरते देखकर आप उन्हें पीठ देकर खड़े हो जाते, जब वे अपना पात्र भरकर चली जाती तब आप अपना पात्र भरते...आपने चन्दन जी चतुर्वेदी से गायकी की शिक्षा ली...16वर्ष की अवस्था में आप टटियास्थान के एक संत श्रीलक्ष्मीदास जी के साथ वृन्दावन आ गए और स्थान के समाज गायन के मुखिया बाबा श्रीरमणदास जी के पास रहने लगे...स्वामी श्रीहरिदास जी की रसरीति उपासना में भावित रहने लगे...बाबा श्रीरमणदास जी ने आपको विरक्त भेष देकर वर्तमान नाम *श्रीराधाचरणदास* रखा...तथा आपको अनन्य धर्म की शिक्षा, विरक्त की रहनी-सहनी एवं समाज गायन की, वाणी सद्ग्रन्थों की शिक्षा दी...आप बड़ी निष्ठा एवं मनोयोगपूर्वक साधना में तत्पर रहते, कुछ समय बाद टटिया स्थान के महंत जी श्रीस्वामी राधारमणदास देव जू महाराज ने आपको ठाकुर श्रीमोहिनीबिहारी जी का पुजारी बना दिया...आप बड़े प्रेम से सेवा करने लगे, कुछ दिनों के लिए आप ब्रजमंडल की यात्रा पर गए, बरसाना धाम के निकट आपने एकान्त में ग्राम पिसाये की झाड़ियों में रहकर भजन किया, ब्रजवासियों से मधुकरी मांगकर भिक्षा करते हुए आप वहां भजन-भावना में निमग्न हुए वास करने लगे, इस तरह आपने वहां छः मास बिताये... जिसके बाद आप पिसाये ग्राम से बरसाना मोरकुटी दर्शन करने गए तो वहां विराजमान वयोवृद्ध सिद्ध त्रिकालज्ञ संत बाबा श्रीहंसदास जी ने आपको देखते ही प्रणाम करते हुए आपको आसान देते हुए  विनीत प्रार्थना करी और कहा *आओ महंत जी विराजो*, बाबा श्रीहंसदास जी अपनी त्रिकालज्ञ दृष्टि से जान गए थे कि कुछ समय बाद आप ही टटियास्थान के महंत होने वाले हैं, अन्ततः उनकी वाणी सत्य सिद्ध हुई, टटिया स्थान के संत समाज ने आपको अश्विन शुक्ला दशमी सम्वत 1994 विजयदशमी के दिन बड़े उत्साह से आपको रसिक अनन्य नृपति श्रीस्वामी हरिदास जू महाराज की गद्दी पर विराजमान कर दिया, महंत बनने के बाद आप स्थान की सेवाओं का सुचारूरूप से संचालन करने लगे...आपके त्याग, वैराग, उदारता, सहिष्णुता, गंभीरता, एकांतप्रियता, दयालुता, धर्म-निष्ठा से सभी सम्प्रदाय के भक्त  प्रभावित होने लगे, आप महान नामनिष्ठ थे, सदा आपके हाथों में माला झोली रहती, सदा भावनापूर्वक श्रीहरिदास नामजप में निमग्न रहते.. वृन्दावन रज की सोहनी सेवा तो आपका जीवनसर्वस्व थी शरीर के विश्राम तक आपने यह प्रण दृढ़तापूर्वक निभाया..वृन्दावन की रज और लताएँ आपके प्राण थी, आप अपने हाथों से लताओं को पानी देने की सेवा करते तथा सभी शिष्यों से कहते---"श्रीवृन्दावन की निजु रसरीति का आवेश यहाँ रज और लताओं में बैठकर नाम-वाणी की कृपा से बहुत शीघ्र प्रकट होता है, यहां की नित्यविहार लीला रज एवं लताओं में है..यही रज और लताएं जब कृपा करते हैं तो अपने निज दिव्य स्वरूप अथवा दिव्य वृन्दावन का दर्शन करवा देते हैं..." जो भी लताओं को काटता उसे स्थान से बाहर कर देते, तथा इतना भारी दुःख मानते जैसे किसी ने उनका ही अंग भंग कर दिया हो...द्रुम लताओं से महाराज जी की घनिष्ट आत्मीयता थी... एकबार दालान बाग में चाहर दिवारी के पास एक जामुन की लता थी..कुछ ब्रजवासी उसे काट रहे थे...श्रीमहाराज जी अपनी भजनस्थली में सरस भजन-भावना में निमग्न थे, उसी समय नीलवर्ण की साड़ी पहने एक प्रकाश पुंज सखि सहज प्रकट हो गई, बोली महाराज जी आपके यहाँ हमारी रक्षा नही हो रही हम वहां भजन कर रही थी कुछ लोग हमारे स्वरूप को भंग कर रहे हैं ऐसा कहती हुई वे सखि दालान बाग की ओर इशारा करती हुई अंतर्ध्यान हो गई... महाराज जी चिंतित अवस्था में भजनस्थली से बाहर आये और तत्काल कुछ साधुओं को दालान बाग भेजकर लताओं को काटने से रोका...

श्रीमहाराज जी का बड़ा दयालु, सुशील, विनम्र, प्रेमी स्वाभव था, सभी संतो और प्रेमी भक्तों को अति सम्मान देते...भजन के प्रभाव से आपका हृदय अति उज्ज्वल, सूक्ष्म हो चुका था, आपकी दृष्टि दूरदर्शी हो गई थी, इससे आपने आश्रित भक्तजनों की सब समस्याओं को जान लेते और उचित आदेश देते एवं उनका निराकरण करते....निजाश्रित जनों को खूब प्रेम करते, उपासना संबंधित कई सत्संग समय समय पर देकर सबका मार्गदर्शन करते, महाराज जी ने हरिदासी समप्रदाय की अनेकों वाणियों का सरल हिंदी अनुवाद किया जिसमें गुरुदेव श्रीस्वामीबिहारिनदेव जू की वाणी *रसोपासना तिलक* प्रमुख है...

आप श्रीवृन्दावन की अनुपम निधि थे, श्रीवृन्दावन के छोटे-बड़े सभी जन आपको बड़े सम्मान, सम्भ्रम, परम पूजनीय दृष्टि से देखते तथा आपका दर्शन कर स्वयं को कृतकृत्य समझते.... आप श्रीमोहिनीबिहारी जी की सेवा-पूजा, भोग-राग आदि के सहित आचार्योत्सव, संतसेवा, लता-पताओं की सेवा समाज गायन, सोहनी सेवा, गऊ सेवा, वाणी पाठ, नाम जप, मोर पक्षियों को चुगाना, तथा प्राचीन पद्धति को बड़ी श्रद्धा के साथ निभाते थे...श्रीमोहिनीबिहारी जी के लिए विविध प्रकार के व्यंजन बनवाकर भोग लगवाते परंतु स्वयं दो मुटठी चना पाकर ही प्रसन्न रहते थे...आपश्री के दर्शन करते ही प्राणी-मात्र को शांति का अनुभव होने लगता था...
ऐसे सरस भजन के पुंज, भजन-सेवा निष्ठ, परम प्रेमी, अपनी सोहनी सेवा और भजन के व्रत के प्रण को अंत तक निभाते हुए भाद्र शुक्ल सप्तमी सन 1998 में दिन के पौने तीन बजे के लगभग श्रीहरिदास नाम लेते हुए नित्यनिकुंज की नित्यविहार लीला में प्रविष्ट हो गए...

आज महाराज जी का प्राकट्योत्सव है, हम सब महाराज जी के चरणों में प्रणाम करते हुए उनकी कृपा की याचना करे जिससे हम जीवों के हृदय में भी महाराज जी जैसी सेवा भजन निष्ठा के कुछ अंश का उदय हो...

नमो श्रीराधाचरन कृपाल ।
भक्तवत्सल सु करुना सागर नित संतनि के महिपाल ।।
सहनसील आसय उदार अति गुननिधि परम् रसाल ।
सुमिरन भजन भावना सूर ज्यौं खोयौ कबहूँ न काल ।।
बढ़ी प्रीति सोहनी सेवा में सेवत रजहि त्रिकाल ।
नव नव लाड़ चाव सौं नितही लाड़त ललना लाल ।।
रहनी गहनी रस रीति दृढ़वन प्रगटे इहि कलि काल ।
भूरि भाग तें श्रीगुरु पाये ज्यौं नव अलबेली लाल ।।

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जय जय श्रीकुंजबिहारी श्रीहरिदास🙇🏻‍♂🙏
श्री हरिदास रसिक परिवार

Tuesday, 5 December 2017

श्री हरिपाल जी

श्री भक्तमाल - श्री हरिपाल जी

श्री हरिपाल जी नामक एक भक्त थे उनका जन्म ब्राह्मण वंश में हुआ था । श्री हरिपाल जी गृहस्थ भक्त थे ।इन्होंने श्री द्वारिकाधीश भगवान् की उपासना में मग्न रहने वाले एक संत को अपने सद्गुरुदेव भगवान् के रूप में वरण किया था । श्री गुरुदेव जी महाराज श्री हरिपाल जी के घर में आया जाया करते थे । एक दिन श्री हरिपाल जी ने गुरुदेव जी से जिज्ञासा प्रकट की - भगवन ! इस संसार में , घर द्वार में हम फंसे पड़े है , घर गृहस्थी के जंजाल से मुक्त होकर भगवान् के चरणारविन्द को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, यही रहते हुए भगवान् को प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय कृपा कर के हमें बताये ।

श्री गुरुदेव भगवान् ने कहा - हम तुम्हे ऐसा सरल उपाय बताएँगे की एकदिन अवश्य भगवान् आकर तुमसे मिलेंगे। श्री गुरुदेव जी ने कहा - तुम साधु- संतो के चरणों में श्रद्धा रखकर उनकी खूब सेवा किया करो । तुम जीवन में एक नियम का निर्वाह कर लिया तो भगवत्प्राप्ति निश्चित है । सतत नाम जप करते हुए रोज किसी न किसी संत को श्रद्धा से भोजन कराया करो ,भगवान् संतो के पीछे पीछे चलते है । भगवान् अपने भक्तो के समीप छाया कितरह चलते है और गुप्त रूप से श्री सुदर्शन जी भक्तो किब्रक्षा करते रहते है । संतो को रिझा लोग तो भगवान् रीझ जाएंगे ।
हरिपाल जी ने कहा - गुरुदेव ! हम रोज संतो को कहा ढूंढने जाएंगे ? गुरुदेव जी ने कहा - चिंता नहीं करो , तुम्हारे द्वार पर भगवान् की कृपा से स्वयं संत आ जायेंगे । उस दिन से श्री हरिपाल जी संतो की सेवा  करने लगे , साधु संतो से उनका बडा प्रेम हो गया ।

पहले श्री हरिपाल जी के पास बहुत धन हुआ करता था । संतो की बहुत सेवा करते थे , जो भी संत उनके घर आते वह प्रसन्न होकर लौटते थे । सब संत भ्रमण करते हुए अन्य संतो को कहते थे - एकबार कभी हरिपाल जिनके घर भी जाकर देखो , कैसी निष्काम सेवा करते है , किस तरह से संतो के चरणों में श्रद्धा रखते है । अब तो बहुत से संत आने लगे , धीरे धीरे हरिपाल जी के घर संतो का आना जाना बढ़ गया । अब तो इतने संत आते की घर से बहार जाने तक का समय हरिपाल जी को नहीं मिलता । बहार जाना बंद हो गया अतः धन कमाने नहीं जा सकते थे ।
धीरे धीरे जितना भी धन था ,वह संतो की सेवा में लुटा दिया । जब घर में कुछ भी नहीं रहा, तब बाजार से कर्ज ले-लेकर कई हजार रुपयो की सामग्री साधुओ को खिला दिया । हरिपाल जी की संत सेवा के बारे में सर्वत्र चर्चा थी  अतः हर दुकान वाला उन्हें कर्ज दे देता था। लगभग हर दूकान से हरिपाल जी ने कर्ज ले लिया था परंतु जब कर्ज बहुत अधिक बढ़ गया तो कोई कर्ज देने स्वीकार नहीं कर रहा था । जब कर्ज मिलना बन्द हो गया, तब चोरी का सहारा लिया परंतु साधु संतो की सेवा करना बंद नहीं किया । हरिपाल जी बहुत बलवान थे । वे सोचते थे की यह भगवान् और संतो से विमुख लोग दान धर्म तो करते नहीं और न भजन करते है ।

भगवान् से विमुख लोगो का धन यदि चोरी करके संत सेवा करी जाए तो इन भगवत विमुखो का अन्न संतो के पेट में जायेगा , इस तरह से इन भगवत विमुख लोगो का भी कल्याण हो जायेगा और संतो की सेवा भी होगी । चोरी करते समय यह ध्यान मे रखते थे कि भगवान् से विमुख धनिक का धन ही ले । जो भक्त , वैष्णव , संत हो अथवा भक्त का कोई चिन्ह (तिलक ,कंठी ) दिखाई पड़े तो उस व्यक्ति का धन नहीं चोरी करते थे । संतो की सेवा थोड़ी देर के लिए स्त्री को सौंप कर बहार जाते थे और घूमकर यह देख लेते थे की किसके घर में भगवान् की सेवा नहीं होती ,कहा भजन नहीं होता । फिर रात में जाकर उसी घरपर चोरी करते थे ।
एक दिन बहार जाकर सोचने लगे - आज किसके घर में चोरी करनी चाहिए ? उन्हें एक वैश्य व्यापारी का घर दिखाई पड़ा । हरिपाल जी ने वहाँ जाकर देखा की यहां कोई कंठी ,तिलक धारण नहीं करता, घर में जप, कीर्तन नहीं होता । हरिपाल जी ने सोचा आज रात में इसी के घर चोरी करेंगे । रात्रि के समय हरिपाल जी उस व्यापारी के घाट में चुपचाप चले गए और चोरी करने लगे । जिस व्यापारी के घर में हरिपाल जी गये थी ,वो गुप्त रूप से भजन करता था । संतो में उसकी बहुत श्रद्धा थी ,वैष्णव वेष में उसकी श्रद्धा थी परंतु वह बहारी रूप से तिलक , कंठी धारण नहीं करता था । वह ये भी जानता था की हरिपाल जी  संतो की सेवा के निमित्त चोरी करते है परंतु कंजूस होने की वजह से कभी हरिपाल जी की सहायता नहीं कर पाया ।

हरिपाल जी रात में जब उसके घरपर चोरी कर रहे थे तभी थोडी आवाज हुई । व्यापारी की बेटी नींद से जागी और पिताजी को भी नींद से जगाया । व्यापारी की बेटी ने कहा - पिताजी ! लगता है घर में कोई चोर घुस गया है । हरिपाल जी एक जगह छिप गए । व्यापारी अपनी बेटी से कहने लगा - शांत ! आवाज न करना । यहाँ श्री हरिपाल जी के अलावा चोरी कौन करता है ? इस नगर में एक वही तो चोर है । हमारा परम सौभाग्य है की हरिपाल जी हमारे घर चोरी करने पधारे । कंजूसी के कारण हम उन्हें धन तो कभी दे नहीं पाये , परंतु अब हमारा भी धन संतो की सेवा में लगेगा । तुम जाकर शान्ति से सो जाओ नहीं तो संतो की सीया में विघ्न होगा । वह दोनों जाकर सो गए परंतु हरिपाल जी ने उनकी सब बातें सुन ली।

हरिपाल जी रोने लगे और पश्चाताप करने लगे की यह व्यापारी संतो में कैसा भाव रखता है , अब घर घर चोरी करना भी सही नहीं लगता ,पता नही कौन गुप्त भक्त हो और हमें अपराध लगे । मन में बहुत ग्लानि हुई और निश्चय किया की आजके बाद रात्रि के समय किसी के घर चोरी नहीं करूँगा । जिस चादर में चोरी का सामान ले जाते वह चादर भी हरिपाल जी उस व्यापारी के घर छोड़ आये । व्यापारी जान गया की यह चादर संत हरिपाल जी की है । प्रसाद रूप में उसने उस चादर को स्वीकार किया और मस्तक से लगा लिया । सतत नाम जप और संत सीया से हरिपाल जी सिद्ध महात्मा हो गए थे ,जैसे ही वह चादर व्यापारी ने अपने मस्तक से लगायी उसके शरीर में आनंद की एक लहार सी दौड़ गयी ।
पूर्व में वह संत और भगवान् में श्रद्धा रखता तो था परंतु प्रत्यक्ष सेवा कभी नहीं करता था । उसकी बुद्धि ऐसी निर्मल हो गयी की वह भी संतो की सेवा में लग गया । तब से चोरी छोडकर हरिपाल जी अभक्तों को पहचानकर लूटपाट करने लगे । एक भाला लेकर जंगल वाले रस्ते पर खड़े हो जाते । हरिपाल जी बड़े बलवान संत थे । वो मार्ग में देखते रहते की कौन रामकृष्ण आदि भगवान् के नाम नहीं लेता ,उसी को लूट लेते । एक दिन कुछ लोग उस रास्ते से जा रहे थे , हरिपाल जी ने उनके गले पर भाला रख दिया और कहा की जितना धन है सारा हमें दे दो ।

उनमे से एक व्यक्ति डर गया और उसके मुख से निकल गया - हे द्वारिकाधीश , हे विट्ठलेश , हे कृष्ण ! हरिपाल जी भगवान् का नाम सुनते ही पीछे हट गए और उन्हें छोड़ दिया । उन लोगो ने सब तरफ यह प्रचार कर दिया की जंगल के रास्ते से जाने वाले सभी भगवान् का नाम गाते हुए जाए , उन्हें हरिपाल जी से कोई ख़तरा नहीं होगा । अब उस रस्ते से जाने वाले सभी लोग सीताराम ,राधे श्याम ,कृष्ण कृष्ण गाते हुए चलते । अब हरिपाल जी की लूटपाट पूरी तरह बंद हो गयी थी । एक दिन द्वारपर बडी सी संत मण्डली आ पहुँची । अब संतो का सत्कार कैसे करें, अपनी स्त्री से यही बातचीत करने लगे । घरमें कुछ भी सामग्री न थी । ऐसे मे दोनों दम्पत्ति भगवान का स्मरण करने लगे ।

निष्किंचन भक्त श्रीहरिपाल जी को चिन्तित जानकर द्वारका मे श्री रुक्मिणी जी के महल मे विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण सोच में पड़ गये । उनकी साधु - सेवा की निष्ठा ने भगवान् का मन हर लिया था, अत: भगवान ने मूल्यवान्  वस्त्र -आभूषण धारण करके सेठका रूप बनाया और चलने लगें । श्री रुक्मिणी जी ने पूछा -प्रभो ! सेठ बनकर आज कहाँ जा रहे हो ? इतने सारे आभूषण तो पहन कर आप कही जाते नहीं । प्रभु बोले- हमारा एक प्रेमीभक्त है, उसीके पास जा रहा हूँ । रुक्मिणी जी सोचने लगी की ऐसा कौनसा भक्त है जिनके यहां इतने सज धज के जा रहे है । रुक्मिणी जी ने कहा -मैं भी साथ चलूँ क्या ? भगवान् ने कहा -आओ चले परंतु श्रृंगार में कोई कमी न करना । सारे सुंदर आभूषण आप धारण करो और हमारे साथ चलो ।

भगवान् ने रुक्मिणी जी से कहा की हम ऐसे भक्त के यहां जा रहे है वहाँ कोई भगवत चर्चा न होने पाये , केवल व्यापार ,वस्त्र ,आभूषणों के बारे में ही बात करना । रुक्मिणी जी सोचने लगी की ऐसा कौन भक्त है जो भगवान् की चर्चा से चिढ़ता हो ? दोनो सेठ और सेठानी श्रीहरिपाल भक्त के द्वारपर आये और पूछने पर श्री हरिपाल जी से कहने लगे-अजी ! मैं अमुक गाँव जा रहा हूँ ,मार्ग मे अकेले जानेपर अनेक संकट हैं, यदि हमे कोई पहुंचा दे, तो हम उसे मजदूरी के रुपये दे देंगे । भक्त हरिपाल जी ने कहा कि संत लोग द्वारपर रुके हुए है , मजदूरी के रुपये पहले दे दो । सेठ ने रुपये दे दिये । उन रुपयों को लेकर आपने अपनी स्त्री को देकर कहा कि इन रुपयो से सन्तो को बालभोग कराओ, मैं इन्हें पहुँचाकर अभी आता हूँ । जंगल में जाकर सेठ केे पास बहुत-सा धन देखकर श्रीहरिपाल जी मन-ही-मन अति प्रसन्न हुए ।

श्री हरिपाल जी ने ध्यान देकर देखा कि उनके गले में माला और मस्तक में तिलक नहीं हैं, ये वैष्णवो का -सा आचार, नाम- उच्चारण आदि भी नही कर रहे हैं, इनके शरीरोंपर अति मूल्यवान इतने आभूषण हैं तो घर में सोना - चाँदी ,जवाहरात के भण्डार भरे होंगे , ऐसे में यदि मै यह सब छीन भी लू तो कोई विशेष हानि नहीं होगी । सेठ सेठानी भी केवल घर व्यापार की बाते ही करते रहे । एक स्थान पर रूककर श्री हरिपाल जी दोनो से बोले - तुम्हारे पास जितना सामान है सब साधु संतो के निमित्त न्यौछावर अपने शरीर से उतारकर डाल दो, नहीं तो पिटोगे । उन दोनो ने सब कुछ उतारकर डाल दिया ।

श्री रुक्मिणी जी अंगुली में एक छल्ला था, वह उनसे नहीं निकला । तब श्री हरिपाल जी अंगुली मरोडकर उसे निकालने लगे । तब वे बोली -अरे ! तू तो बडा ही कठोर है, मेरी अँगुली टूट जायेगी । इस छल्ले को छोड़ दे । भक्तजी ने कहा -छोड़ कैसे दूँ? इससे तो कई सन्तो का भोजन होगा । इस साधु सेवा निष्ठा की बात सुनकर भगवान् ने  सेठरूप को त्याग दिया और श्यामसुन्दर अनूपरूप धारणकर अपने भक्त को दिखाया ।हरिपाल जी के गुरुदेव की वाणी सत्य हो गयी । मेरे प्यारे हो, भक्तों में श्रेष्ठ हो - ऐसा कहते हुए भगवान् ने हरिपाल जी को छाती से लगा लिया ।
जब कोई भक्त जीवन में कोई नियम लेता है तो उस नियम के दृढ़ता की परीक्षा अवश्य होती है और यदि वह उस नियम का किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं करता तो भगवान् की प्राप्ति सहज हो जाती है । गुरुदेव जी के द्वारा दिया हुआ नियम हरिपाल जी ने कभी नहीं छोड़ा , कैसा भी दुःख आया परंतु संतो की सेवा करते रहे । बाद में भगवान् ने हरिपाल जी की संत सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें अपार धन दिया ।

Thursday, 10 August 2017

नरहरि सुनार कथा

(((((( नरहरि सुनार की करधनी ))))))

    हरिहर की कथा
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नरहरि सुनार रहते तो पंढरपुर में थे, किंतु इनका हृदय काशी के भोले बाबा ने चुरा लिया था।
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शिव की भक्ति में ये इतने मगन रहते थे कि पंढरपुर में रहकर भी विट्ठल भगवान् को न तो इन्होंने कभी देखा और न ही देखने को उत्सुक थे।
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नरहरि सुनारी का काम करते थे। इस लिए जब सोने के आभूषण बनाते, तो उस समय भी शिव, शिव, शिव, शिव का नाम सतत इनके होंठों पर रहता। इस लिए इनके बनाए आभूषणों में भी दिव्य सौंदर्य झलकने लगता था।
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पंढरपुर में ही रहता था एक साहूकार, जो कि विट्ठल भगवान् का भक्त था। उसके कोई पुत्र न था। उसने एक बार विट्ठल भगवान् से मनौती की कि यदि उसे पुत्र हुआ, तो वह विट्ठल भगवान् को सोने की करधनी (कमरबंद या कमर पट्टा) पहनाएगा।
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विट्ठल भगवान् की कृपा से उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। वह खुशी से फूला न समाया और भागा-भागा नरहरि सुनार के पास सोना लेकर पहुँचा और बोला,
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नरहरि जी ! विट्ठल भगवान् ने प्रसन्न होकर मुझे पुत्र प्रदान किया है। अतः मनौती के अनुसार आज मैं विट्ठल भगवान् को रत्नजड़ित सोने की करधनी पहनाना चाहता हूँ।
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पंढरपुर में आपके अलावा इस प्रकार की करधनी और कोई नहीं गढ़ सकता। इस लिए आप यह सोना ले लीजिए और पांडुरंग मंदिर में चलकर विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले आइए और जल्दी से करधनी तैयार कर दीजिए।
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विट्ठल भगवान् का नाम सुनकर नरहरि जी बोले, "भैया ! मैं शिवजी के अलावा किसी अन्य देवता के मंदिर में प्रवेश नहीं करता। इसलिए आप किसी दूसरे सुनार से करधनी तैयार करा लें।
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लेकिन साहूकार बोला, नरहरि जी ! आपके जैसा श्रेष्ठ सुनार तो पंढरपुर में और कोई नहीं है, इसलिए मैं करधनी तो आपसे ही बनवाऊँगा। यदि आप मंदिर नहीं जाना चाहते हैं, तो ठीक है। मैं स्वयं विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ला देता हूँ। नरहरि जी ने मजबूरी में इसे स्वीकार कर लिया।
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साहूकार विट्ठल भगवान् की कमर का नाप लेकर आ गया और नरहरि जी ने उस नाप की रत्नजड़ित सोने की करधनी बना दी।
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साहूकार आनंद पूर्वक उस करधनी को लेकर अपने आराध्य देव विट्ठल भगवान् को पहनाने मंदिर गया। जब पुजारी जी वह करधनी विट्ठल भगवान् को पहनाने लगे, तो वह करधनी कमर से चार अंगुल बड़ी हो गई।
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साहूकार करधनी लेकर वापिस नरहरि जी के पास लौटा और उस करधनी को छोटा करवा लिया। जब वह पुनः करधनी लेकर मंदिर पहुँचा और पुजारी ने वह करधनी विट्ठल भगवान् को पहनानी चाही, तो अबकी बार वह चार अंगुल छोटी निकली।
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नरहरि जी ने करधनी फिर बड़ी की, तो वह चार अंगुल बढ़ गई। फिर छोटी की, तो वह चार अंगुल कम हो गई। ऐसा चार बार हुआ। पुजारी जी व अन्य श्रद्धालुओं ने साहूकार को सलाह दी कि नरहरि जी स्वयं ही विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले लें।
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साहूकार के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर नरहरि जी बड़ी मुश्किल से विट्ठल भगवान् के मंदिर में जाकर स्वयं नाप लेने को तैयार हुए।
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किंतु कहीं उन्हें विट्ठल भगवान् के दर्शन न हो जाएँ, यह सोचकर उन्होंने साहूकार के सामने यह शर्त रखी कि मंदिर में घुसने से पहले मैं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लूँगा और हाथों से टटोल कर ही आपके विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले सकूँगा।
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साहूकार ने नरहरि जी की यह शर्त मान ली। अनेक शिवालयों से घिरे पांडुरंग मंदिर की ओर कदम बढ़ाने से पहले नरहरि जी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। साहूकार इन्हें मंदिर के अंदर ले आया और विट्ठल भगवान् के सामने खड़ा कर दिया।
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जब नरहरिजी ने नाप लेने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाए और मूर्ति को टटोलना शुरू किया, तो उन्हें लगा कि वे पाँच मुख, दस हाथ वाले, साँपों के आभूषण पहने हुए, मस्तक पर जटा और उसमें से प्रवाहित हो रही गंगा वाले शंकर भगवान् की मूर्ति का स्पर्श कर रहे हैं।
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नरहरि जी ने सोचा, 'कहीं साहूकार मुझ से ठिठोली करने के लिए विट्ठल भगवान् के मंदिर की जगह किसी शिवालय में तो नहीं ले आए हैं। यह सोचकर ये अपने आराध्य देव के दर्शन के लोभ से बच नहीं पाए और प्रसन्न होकर इन्होंने अपनी आँखों से पट्टी खोल दी।
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किंतु आँखें खोलकर देखा तो ठगे से रह गए। देखा सामने उनके आराध्य शिव भगवान् नहीं विट्ठल ही खड़े हैं। झट इन्होंने फिर से अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और पुनः नाप लेने लगे।
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लेकिन जैसे ही इन्होंने पुनः मूर्ति के दोनों ओर अपने हाथ ले जाकर कमर की नाप लेने का प्रयास किया, तो इन्हें पुन: ऐसा आभास हुआ कि मानो ये अपने इष्टदेव बाघाम्बर धारी भगवान् शिवजी का ही आलिंगन कर रहे हों।
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जैसे ही आँखों से पट्टी खोलकर देखा, तो पुनः विट्ठल भगवान् की मुस्कराती हुई छवि दिखलाई पड़ी। हड़बड़ाते हुए इन्होंने तुरंत अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली और फिर से मूर्ति की कमर का नाप लेने लगे। लेकिन आँखें बंद करने पर पुनः मूर्ति में शंकर भगवान् का आभास हुआ।
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जब ऐसा तीन बार हुआ, तो नरहरि जी असमंजस में पड़ गए। इन्हें समझ में आ गया कि शिव और विट्ठल भगवान् अलग-अलग नहीं हैं। जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल (विष्णु) हैं, वे ही शंकर हैं।
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अब तो इन्होंने झट अपनी आँखों पर बँधी अज्ञान की पट्टी उतारकर फेंकी और क्षमा माँगते हुए विट्ठल भगवान् के चरणों में गिर पड़े और सुबक-सुबककर रोते हुए कहने लगे,
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हे विश्व के जीवनदाता ! मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैं शिवजी में और आपमें अंतर करता था। इसीलिए मुझ नराधम ने आज तक आपके दर्शन तक न किए। आज आपने मेरे मन का अज्ञान और अंधकार दूर कर दिया। कृपया अपने इस अपराधी को क्षमा कर दीजिए।
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नरहरि जी की इस सरलता पर विट्ठल भगवान् रीझ गए और उन्होंने प्रसन्न होकर नरहरि के इष्टदेव शिवजी को सम्मान देते हुए अपने शीश पर शिवलिंग धारण कर लिया। विट्ठल भगवान् को सिर पर शिवलिंग धारण किए देखकर नरहरि जी और भी अधिक रोमांचित हो गए और अश्रुपात करते हुए गद्गद स्वर से उनकी स्तुति करने लगे।
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अब की बार नरहरि जी ने विट्ठल भगवान् की कमर की नाप लेकर प्रेम पूर्ण हृदय से जो करधनी बनाई, वह उनकी कमर में बिल्कुल ठीक बैठी। विट्ठल भगवान् को रत्नजड़ित करधनी पहने देख नरहरि जी और साहूकार भाव-विभोर हो उठे।
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अब नरहरि जी विट्ठल भगवान् को अपने इष्ट देव शिव भगवान् का ही रूप मानने लगे थे, अतः ये विट्ठल-भक्तों के वारकरी मंडल में शामिल हो गए। ये विट्ठल, विट्ठल, विट्ठल, विट्ठल का भगवन्नाम संकीर्तन करते हुए मस्ती में नृत्य करते।
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आज भी अपने सिर पर शिवलिंग धारण किए पंढरपुर के विट्ठल भगवान् के दर्शन कर भक्तजनों को नरहरि सुनार की इस कथा की बरबस याद आ जाती है ।