Tuesday, 5 December 2017

श्री हरिपाल जी

श्री भक्तमाल - श्री हरिपाल जी

श्री हरिपाल जी नामक एक भक्त थे उनका जन्म ब्राह्मण वंश में हुआ था । श्री हरिपाल जी गृहस्थ भक्त थे ।इन्होंने श्री द्वारिकाधीश भगवान् की उपासना में मग्न रहने वाले एक संत को अपने सद्गुरुदेव भगवान् के रूप में वरण किया था । श्री गुरुदेव जी महाराज श्री हरिपाल जी के घर में आया जाया करते थे । एक दिन श्री हरिपाल जी ने गुरुदेव जी से जिज्ञासा प्रकट की - भगवन ! इस संसार में , घर द्वार में हम फंसे पड़े है , घर गृहस्थी के जंजाल से मुक्त होकर भगवान् के चरणारविन्द को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, यही रहते हुए भगवान् को प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय कृपा कर के हमें बताये ।

श्री गुरुदेव भगवान् ने कहा - हम तुम्हे ऐसा सरल उपाय बताएँगे की एकदिन अवश्य भगवान् आकर तुमसे मिलेंगे। श्री गुरुदेव जी ने कहा - तुम साधु- संतो के चरणों में श्रद्धा रखकर उनकी खूब सेवा किया करो । तुम जीवन में एक नियम का निर्वाह कर लिया तो भगवत्प्राप्ति निश्चित है । सतत नाम जप करते हुए रोज किसी न किसी संत को श्रद्धा से भोजन कराया करो ,भगवान् संतो के पीछे पीछे चलते है । भगवान् अपने भक्तो के समीप छाया कितरह चलते है और गुप्त रूप से श्री सुदर्शन जी भक्तो किब्रक्षा करते रहते है । संतो को रिझा लोग तो भगवान् रीझ जाएंगे ।
हरिपाल जी ने कहा - गुरुदेव ! हम रोज संतो को कहा ढूंढने जाएंगे ? गुरुदेव जी ने कहा - चिंता नहीं करो , तुम्हारे द्वार पर भगवान् की कृपा से स्वयं संत आ जायेंगे । उस दिन से श्री हरिपाल जी संतो की सेवा  करने लगे , साधु संतो से उनका बडा प्रेम हो गया ।

पहले श्री हरिपाल जी के पास बहुत धन हुआ करता था । संतो की बहुत सेवा करते थे , जो भी संत उनके घर आते वह प्रसन्न होकर लौटते थे । सब संत भ्रमण करते हुए अन्य संतो को कहते थे - एकबार कभी हरिपाल जिनके घर भी जाकर देखो , कैसी निष्काम सेवा करते है , किस तरह से संतो के चरणों में श्रद्धा रखते है । अब तो बहुत से संत आने लगे , धीरे धीरे हरिपाल जी के घर संतो का आना जाना बढ़ गया । अब तो इतने संत आते की घर से बहार जाने तक का समय हरिपाल जी को नहीं मिलता । बहार जाना बंद हो गया अतः धन कमाने नहीं जा सकते थे ।
धीरे धीरे जितना भी धन था ,वह संतो की सेवा में लुटा दिया । जब घर में कुछ भी नहीं रहा, तब बाजार से कर्ज ले-लेकर कई हजार रुपयो की सामग्री साधुओ को खिला दिया । हरिपाल जी की संत सेवा के बारे में सर्वत्र चर्चा थी  अतः हर दुकान वाला उन्हें कर्ज दे देता था। लगभग हर दूकान से हरिपाल जी ने कर्ज ले लिया था परंतु जब कर्ज बहुत अधिक बढ़ गया तो कोई कर्ज देने स्वीकार नहीं कर रहा था । जब कर्ज मिलना बन्द हो गया, तब चोरी का सहारा लिया परंतु साधु संतो की सेवा करना बंद नहीं किया । हरिपाल जी बहुत बलवान थे । वे सोचते थे की यह भगवान् और संतो से विमुख लोग दान धर्म तो करते नहीं और न भजन करते है ।

भगवान् से विमुख लोगो का धन यदि चोरी करके संत सेवा करी जाए तो इन भगवत विमुखो का अन्न संतो के पेट में जायेगा , इस तरह से इन भगवत विमुख लोगो का भी कल्याण हो जायेगा और संतो की सेवा भी होगी । चोरी करते समय यह ध्यान मे रखते थे कि भगवान् से विमुख धनिक का धन ही ले । जो भक्त , वैष्णव , संत हो अथवा भक्त का कोई चिन्ह (तिलक ,कंठी ) दिखाई पड़े तो उस व्यक्ति का धन नहीं चोरी करते थे । संतो की सेवा थोड़ी देर के लिए स्त्री को सौंप कर बहार जाते थे और घूमकर यह देख लेते थे की किसके घर में भगवान् की सेवा नहीं होती ,कहा भजन नहीं होता । फिर रात में जाकर उसी घरपर चोरी करते थे ।
एक दिन बहार जाकर सोचने लगे - आज किसके घर में चोरी करनी चाहिए ? उन्हें एक वैश्य व्यापारी का घर दिखाई पड़ा । हरिपाल जी ने वहाँ जाकर देखा की यहां कोई कंठी ,तिलक धारण नहीं करता, घर में जप, कीर्तन नहीं होता । हरिपाल जी ने सोचा आज रात में इसी के घर चोरी करेंगे । रात्रि के समय हरिपाल जी उस व्यापारी के घाट में चुपचाप चले गए और चोरी करने लगे । जिस व्यापारी के घर में हरिपाल जी गये थी ,वो गुप्त रूप से भजन करता था । संतो में उसकी बहुत श्रद्धा थी ,वैष्णव वेष में उसकी श्रद्धा थी परंतु वह बहारी रूप से तिलक , कंठी धारण नहीं करता था । वह ये भी जानता था की हरिपाल जी  संतो की सेवा के निमित्त चोरी करते है परंतु कंजूस होने की वजह से कभी हरिपाल जी की सहायता नहीं कर पाया ।

हरिपाल जी रात में जब उसके घरपर चोरी कर रहे थे तभी थोडी आवाज हुई । व्यापारी की बेटी नींद से जागी और पिताजी को भी नींद से जगाया । व्यापारी की बेटी ने कहा - पिताजी ! लगता है घर में कोई चोर घुस गया है । हरिपाल जी एक जगह छिप गए । व्यापारी अपनी बेटी से कहने लगा - शांत ! आवाज न करना । यहाँ श्री हरिपाल जी के अलावा चोरी कौन करता है ? इस नगर में एक वही तो चोर है । हमारा परम सौभाग्य है की हरिपाल जी हमारे घर चोरी करने पधारे । कंजूसी के कारण हम उन्हें धन तो कभी दे नहीं पाये , परंतु अब हमारा भी धन संतो की सेवा में लगेगा । तुम जाकर शान्ति से सो जाओ नहीं तो संतो की सीया में विघ्न होगा । वह दोनों जाकर सो गए परंतु हरिपाल जी ने उनकी सब बातें सुन ली।

हरिपाल जी रोने लगे और पश्चाताप करने लगे की यह व्यापारी संतो में कैसा भाव रखता है , अब घर घर चोरी करना भी सही नहीं लगता ,पता नही कौन गुप्त भक्त हो और हमें अपराध लगे । मन में बहुत ग्लानि हुई और निश्चय किया की आजके बाद रात्रि के समय किसी के घर चोरी नहीं करूँगा । जिस चादर में चोरी का सामान ले जाते वह चादर भी हरिपाल जी उस व्यापारी के घर छोड़ आये । व्यापारी जान गया की यह चादर संत हरिपाल जी की है । प्रसाद रूप में उसने उस चादर को स्वीकार किया और मस्तक से लगा लिया । सतत नाम जप और संत सीया से हरिपाल जी सिद्ध महात्मा हो गए थे ,जैसे ही वह चादर व्यापारी ने अपने मस्तक से लगायी उसके शरीर में आनंद की एक लहार सी दौड़ गयी ।
पूर्व में वह संत और भगवान् में श्रद्धा रखता तो था परंतु प्रत्यक्ष सेवा कभी नहीं करता था । उसकी बुद्धि ऐसी निर्मल हो गयी की वह भी संतो की सेवा में लग गया । तब से चोरी छोडकर हरिपाल जी अभक्तों को पहचानकर लूटपाट करने लगे । एक भाला लेकर जंगल वाले रस्ते पर खड़े हो जाते । हरिपाल जी बड़े बलवान संत थे । वो मार्ग में देखते रहते की कौन रामकृष्ण आदि भगवान् के नाम नहीं लेता ,उसी को लूट लेते । एक दिन कुछ लोग उस रास्ते से जा रहे थे , हरिपाल जी ने उनके गले पर भाला रख दिया और कहा की जितना धन है सारा हमें दे दो ।

उनमे से एक व्यक्ति डर गया और उसके मुख से निकल गया - हे द्वारिकाधीश , हे विट्ठलेश , हे कृष्ण ! हरिपाल जी भगवान् का नाम सुनते ही पीछे हट गए और उन्हें छोड़ दिया । उन लोगो ने सब तरफ यह प्रचार कर दिया की जंगल के रास्ते से जाने वाले सभी भगवान् का नाम गाते हुए जाए , उन्हें हरिपाल जी से कोई ख़तरा नहीं होगा । अब उस रस्ते से जाने वाले सभी लोग सीताराम ,राधे श्याम ,कृष्ण कृष्ण गाते हुए चलते । अब हरिपाल जी की लूटपाट पूरी तरह बंद हो गयी थी । एक दिन द्वारपर बडी सी संत मण्डली आ पहुँची । अब संतो का सत्कार कैसे करें, अपनी स्त्री से यही बातचीत करने लगे । घरमें कुछ भी सामग्री न थी । ऐसे मे दोनों दम्पत्ति भगवान का स्मरण करने लगे ।

निष्किंचन भक्त श्रीहरिपाल जी को चिन्तित जानकर द्वारका मे श्री रुक्मिणी जी के महल मे विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण सोच में पड़ गये । उनकी साधु - सेवा की निष्ठा ने भगवान् का मन हर लिया था, अत: भगवान ने मूल्यवान्  वस्त्र -आभूषण धारण करके सेठका रूप बनाया और चलने लगें । श्री रुक्मिणी जी ने पूछा -प्रभो ! सेठ बनकर आज कहाँ जा रहे हो ? इतने सारे आभूषण तो पहन कर आप कही जाते नहीं । प्रभु बोले- हमारा एक प्रेमीभक्त है, उसीके पास जा रहा हूँ । रुक्मिणी जी सोचने लगी की ऐसा कौनसा भक्त है जिनके यहां इतने सज धज के जा रहे है । रुक्मिणी जी ने कहा -मैं भी साथ चलूँ क्या ? भगवान् ने कहा -आओ चले परंतु श्रृंगार में कोई कमी न करना । सारे सुंदर आभूषण आप धारण करो और हमारे साथ चलो ।

भगवान् ने रुक्मिणी जी से कहा की हम ऐसे भक्त के यहां जा रहे है वहाँ कोई भगवत चर्चा न होने पाये , केवल व्यापार ,वस्त्र ,आभूषणों के बारे में ही बात करना । रुक्मिणी जी सोचने लगी की ऐसा कौन भक्त है जो भगवान् की चर्चा से चिढ़ता हो ? दोनो सेठ और सेठानी श्रीहरिपाल भक्त के द्वारपर आये और पूछने पर श्री हरिपाल जी से कहने लगे-अजी ! मैं अमुक गाँव जा रहा हूँ ,मार्ग मे अकेले जानेपर अनेक संकट हैं, यदि हमे कोई पहुंचा दे, तो हम उसे मजदूरी के रुपये दे देंगे । भक्त हरिपाल जी ने कहा कि संत लोग द्वारपर रुके हुए है , मजदूरी के रुपये पहले दे दो । सेठ ने रुपये दे दिये । उन रुपयों को लेकर आपने अपनी स्त्री को देकर कहा कि इन रुपयो से सन्तो को बालभोग कराओ, मैं इन्हें पहुँचाकर अभी आता हूँ । जंगल में जाकर सेठ केे पास बहुत-सा धन देखकर श्रीहरिपाल जी मन-ही-मन अति प्रसन्न हुए ।

श्री हरिपाल जी ने ध्यान देकर देखा कि उनके गले में माला और मस्तक में तिलक नहीं हैं, ये वैष्णवो का -सा आचार, नाम- उच्चारण आदि भी नही कर रहे हैं, इनके शरीरोंपर अति मूल्यवान इतने आभूषण हैं तो घर में सोना - चाँदी ,जवाहरात के भण्डार भरे होंगे , ऐसे में यदि मै यह सब छीन भी लू तो कोई विशेष हानि नहीं होगी । सेठ सेठानी भी केवल घर व्यापार की बाते ही करते रहे । एक स्थान पर रूककर श्री हरिपाल जी दोनो से बोले - तुम्हारे पास जितना सामान है सब साधु संतो के निमित्त न्यौछावर अपने शरीर से उतारकर डाल दो, नहीं तो पिटोगे । उन दोनो ने सब कुछ उतारकर डाल दिया ।

श्री रुक्मिणी जी अंगुली में एक छल्ला था, वह उनसे नहीं निकला । तब श्री हरिपाल जी अंगुली मरोडकर उसे निकालने लगे । तब वे बोली -अरे ! तू तो बडा ही कठोर है, मेरी अँगुली टूट जायेगी । इस छल्ले को छोड़ दे । भक्तजी ने कहा -छोड़ कैसे दूँ? इससे तो कई सन्तो का भोजन होगा । इस साधु सेवा निष्ठा की बात सुनकर भगवान् ने  सेठरूप को त्याग दिया और श्यामसुन्दर अनूपरूप धारणकर अपने भक्त को दिखाया ।हरिपाल जी के गुरुदेव की वाणी सत्य हो गयी । मेरे प्यारे हो, भक्तों में श्रेष्ठ हो - ऐसा कहते हुए भगवान् ने हरिपाल जी को छाती से लगा लिया ।
जब कोई भक्त जीवन में कोई नियम लेता है तो उस नियम के दृढ़ता की परीक्षा अवश्य होती है और यदि वह उस नियम का किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं करता तो भगवान् की प्राप्ति सहज हो जाती है । गुरुदेव जी के द्वारा दिया हुआ नियम हरिपाल जी ने कभी नहीं छोड़ा , कैसा भी दुःख आया परंतु संतो की सेवा करते रहे । बाद में भगवान् ने हरिपाल जी की संत सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें अपार धन दिया ।