Friday, 22 June 2018

श्रील रूप गोस्वामी पाद की महिमा

*श्रील रूप गोस्वामी पाद की महिमा*

श्रील् रूप गोस्वामी को भक्ति रत्नाकर ग्रँथ में 'कोटि समुद्र गम्भीर'कहा गया है।

श्रील् रूप गोस्वामी का प्रेम कोटि समुद्र समान गहरा था।

श्रील् रूप गोस्वामी का प्रेम इसी प्रकार अगाध था,भाव उठते थे पर बाहर प्रकाशित नही होते थे।दूसरे भक्त जो उनके आसपास होते भाव अतिरेक से मूर्छित हो जाते,उन्माद की भांति आचरण करते ,परन्तु श्रील् रूप गोस्वामी जी में बाह्य प्रकाश नही होता।

उनका असाधारण धैर्य (यहां विशेष अर्थ है भावों को धारण करने की अद्वितीय क्षमता) एकबार वैष्णव समाज मे विशेष रूपसे प्रकाशित हुई।

सारा वैष्णव समाज एकत्रित था,श्रीश्री राधाकृष्ण के विरह का वर्णन चल रहा था।सारा वैष्णव समाज रो रोकर भूमि में लोट रहा था।

श्रील् रूप गोस्वामी के हृदय में अग्नि शिखा की भांति विरह अग्नि धू धू कर रही थी।पर बाहर प्रकाश नही था।अद्भुत स्थैर्य था उनमें।

(श्याम सुंदर का एक गुण है स्थैर्य,जो श्रील् रूप गोस्वामी में कूट कूटकर भरा था।अविचल अटल प्रेम)

कुछ भक्तों को आश्चर्य हुआ,कुछ को शंका हुई कि श्रील् रूप गोस्वामी इतने स्थिर कैसे ,क्या इनमें ज़रा भी विरह व्यथा नही?अगर है तो ये विकार स्वतः प्रकाश हैं,दिखने चाहिए, दिख क्यों नही रहे?

तभी कोई भक्त पीछेसे श्रील् रूप गोस्वामी की ओर आया।थोड़ा पास आते ही उनके तप्त शरीर की आंच भक्त को लगने लगी,मानो धधकती ज्वाला के निकट चले गए हों।अति आश्चर्य से थोड़ा और निकट गया तो श्रील् रूप गोस्वामी जी की श्वास उनकी देह पर पड़ी।उत्तप्त श्वास से उस भक्त के शरीर पर फफोले पड़ गए।

ऐसी विरह अग्नि को भीतर दबाए श्रीरूप महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य कर निरन्तर ग्रँथ प्रणयन और लुप्त तीर्थ उद्धार में लगे रहते।

श्रील् रूप गोस्वामी के लिए श्री स्वरूप दामोदर कहते हैं कि -"ये रूप श्रीचैतन्य का प्रिय स्वरूप ही है"

श्रील कविराज गोस्वामी श्रील रूप गोस्वामी के लिए कहते हैं-

*प्रियस्वरूपे दयित स्वरूपे प्रेम स्वरूपे सहजाभिरूपे।*
*निजानुरूपे प्रभुरेकरूपे ततान स्वविलास रुपे।।*

अर्थात-श्रील् रूप गोस्वामी जी महाप्रभु के प्रिय पात्र थे, प्रिय स्वरूपतुल्य थे, उनसे अभिन्न रूप थे, जो श्रीकृष्ण के विलास तत्व को वर्णन करने में पूर्ण समर्थ थे, उनमे महाप्रभु ने प्रेम शक्ति संचारित की थी।

श्रील् रूप गोस्वामी जी तो निकुंजलीला के नित्य साक्षी हैं,श्रीरूप मंजरी जी हैं, प्रेम तत्व के निगूढतम रहस्य को जानते हैं,फिर उनमें महाप्रभु को प्रेम संचार करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?

यहां महाप्रभु मानो ये कह रहे हो -"रूप!प्रेम का अनुभव कर अपनेआप को संयत रखकर तुम्हे वर्णन करना पड़ेगा।विचलित न होना"

ऐसा विचार कर आलिंगन किया।श्रीकृष्ण चैतन्य की सुवर्ण गौर कांति श्रीराधा ही है,क्योकि श्रीराधा अपने भावसे भिन्न नही।मानो श्रीराधा ही श्रीरूप मंजरी जी को आलिंगन कर अनुमति दे रही हो-"जाओ रूप।मेरे बिना तुम लिख नही पाओगे।मेरे बिना उस प्रेम को तुम संभाल नही पाओगे।आलिंगन रूप में मैं हूँ तुम्हारे साथ"