Friday, 27 May 2016

मुरली तेरा मधुकर 6

मुरली तेरा मुरलीधर 6
प्रेम नारायण पंकिल

सबसे सकता भाग स्वयं से भाग कहाँ सकता मधुकर
भाग भाग कर रीता ही रीता रह जायेगा निर्झर
कुछ होने कुछ पा जाने की आशा में बॅंध मर न विकल
टेर रहा स्वात्मानुशिलिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।26।।

यदि तोड़ना मूढ़ कुछ है तो तोड़ स्वमूर्च्छा ही मधुकर
जड़ताओं के तृण तरु दल से रुद्ध प्राण जीवन निर्झर
शुचि जागरण सुमन परिमल से सुरभित कर जीवन पंकिल
टेर रहा है पूर्णानन्दा मुरली तेरा मुरलीधर।।27।।

क्या ‘मैं’ के अतिरिक्त उसे तूँ अर्पित कर सकता मधुकर
शेष तुम्हारे पास छोड़ने को क्या बचा विषय निर्झर
‘मैं’ का केन्द्र बचा कर पंकिल कुछ देना भी क्या देना
टेर रहा अहिअहंमर्दिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।28।।

किसे मिटाने चला स्वयं का ‘मैं’ ही मार मलिन मधुकर
एकाकार तुम्हारा उसका फिर हो जायेगा निर्झर
शब्द शून्यता में सुन कैसी मधुर बज रही है वंशी
टेर रहा विक्षेपनिरस्ता मुरली तेरा मुरलीधर।।29।।

क्षुधा पिपासा व्याधि व्यथा विभुता विपन्नता में मधुकर
स्पर्श कर रहा वही परमप्रिय सच्चा विविध वर्ण निर्झर
वही वही संकल्पधनी है सतरंगी झलमल झलमल
टेर रहा है सर्वगोचरा मुरली तेरा मुरलीधर।।30।।
क्रमशः ...

Thursday, 26 May 2016

श्री गोस्वामी तुलसी दास जी कृत वैराग्य - संदीपनी

श्री हरिः
श्री गोस्वामी तुलसी दास जी कृत
वैराग्य - संदीपनी

मंगलाचरण और भगवत स्वरुप वर्णन

राम बाम दिसि जानकी, लखन दाहिनी ओर,
ध्यान सकल कल्यानमय, सुर तरु तुलसी तोर [१]

तुलसी मिटै न मोह तम, किये कोटि गुन ग्राम,
हृदय कमल फूले नहीं, बिनु रबि-कुल-रबि राम [२]

सुनत लखत श्रुति नयन बिनु, रसना बिनु रस लेत,
बास नासिका बिनु लहै, परसे बिना निकेत [३]

अज अद्वैत अनाम, अलख रूप गुन गन रहित जो,
माया पति सोई राम, दास हेतु नर तन धरेउ [४] [सोरठा]

तुलसी यह तनु खेत है, मन वच कर्म किसान,
पाप -पुण्य द्वै बीज हैं, बवै सो लवै निदान [५]

तुलसी यह तनु तवा है, तपत सदा त्रै ताप,
सांति होई जब सांति पद, पावै राम प्रताप [६]

तुलसी बेद - पुरान - मत, पूरन सास्त्र बिचार,
यह बिराग - संदीपनी अखिल ज्ञान को सार [७]

संत स्वभाव वर्णन

सरल बरन भाषा सरल, सरल अर्थमय मानि,
तुलसी सरले संतजन, ताहि परी पहिचानि [८]

अति सीतल अति ही सुख दाई,
सम दम राम भजन अधिकाई।
जड़ जीवन कौं करै सचेता,
जग महै विचरत हैं एहि हेता॥ [९] [चौपाई]

तुलसी ऐसे कहुं कहूँ, धन्य धरनी वह संत,
परकाजे परमारथी, प्रीति लिए निबहंत [१०]

की मुख पट दीन्हें रहें, जथा अर्थ भाषंत,
तुलसी या संसार में, सो विचारजुत संत [११]

बोलै वचन बिचारि कै, लीन्हें संत सुभाव,
तुलसी दुःख दुर्बचन के, पंथ देत नहीं पाँव [१२]

सत्रु न काहू करि गनै, मित्र गनै नहिं काहि,
तुलसी यह मत संत को, बोले संता माहिं [१३]

अति अनन्य गति इन्द्री जीता,
जाको हरि बिनु कतहुं न चीता।
मृग तृष्णा सम जग जिय जानी,
तुलसी ताहि संत पहिचानी॥ [१४] [चौपाई]

एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास,
राम रूप स्वाती जलद, चातक तुलसी दास [१५]

सो जन जगत जहाज है, जाके राग न द्वोष,
तुलसी तृष्णा त्यागि कै, गहै सील संतोष [१६]

सील गहनि सब की सहनि, कहनि हीय मुख राम,
तुलसी रहिये यहि रहनि, संत जनन को काम [१७]

निज संगी निज सम करत, दुर्जन मन दुःख दून,
मलयाचल हैं संतजन, तुलसी दोष बिहून [१८]

कोमल वाणी संत की, स्रवत अमृतमय आइ,
तुलसी ताहि कठोर मन, सुनत मैन होई जाइ [१९]

अनुभव सुख उतपति करत, भय- भ्रम धरे उठाए,
ऐसी बानी संत की, जो उर भेदै आए [२०]

ऐसी बानी संत की, सासिहू ते अनुमान,
तुलसी कोटि तपन हरै, जो कोऊ धारै कान [२१]

पाप ताप सब सूल नसावें,
मोह अंध रबि बचन बहावैं।
तुलसी ऐसे सदगुन साधू,
बेद मध्य गुन बिदित अगाधू॥ [२२] [चौपाई]

तन करि मन करि बचन करि, काहू दुखत नाहिं,
तुलसी ऐसे संत जन रामरूप जग माहिं [२३]

मुख दीखत पातक हरै, परसत करम बिलाहिं
बचन सुनत मन मोह्गत, पूरब भाग मिलाहिं [२४]

अति कोमल अरु बिमल रूचि, मानस में मल नाहिं,
तुलसी रत मन हुई रहे, अपने साहिब मांहि [२५]

जाके मन ते उठि गई, तिल-तिल तृष्णा चाहि,
मनसा बाचा कर्मना, तुलसी बंदत ताहि [२६]

कंचन काँचही सम गनै, कामिनी काष्ठ पषान,
तुलसी ऐसे संतजन, पृथ्वी ब्रह्म समान [२७]

कंचन को मृतिका करि मानत,
कामिनी काष्ठ सिला पहिचानत।
तुलसी भूलि गयो रस एहा,
ते जन प्रगट राम की देहा॥ [२८] [चौपाई]

आकिंचन इन्द्रीदमन, रमन राम एक तार,
तुलसी ऐसे संत जन, बिरले या संसार [२९]

अहंबाद 'मैं' 'तैं' नहीं, दुष्ट संग नहिं कोय,
दुःख ते दुःख नहिं ऊपजे, सुख तें सुख नहिं होय [३०]

सम कंचन कान्चै गिनत, सत्रु मित्र सम दोए,
तुलसी या संसार में, कहत संत जन सोए [३१]

बिरले बिरले पाएये, माया त्यागी संत,
तुलसी कामी कुटिल कलि, केकी केक अनंत [३२]

मैं तैं मेट्यो मोह तम, उग्यो आत्मा भानु,
संत राज सो जानिए, तुलसी या सहिदानु [३३]

संत - महिमा - वर्णन

को बरनै सुख एक, तुलसी महिमा संत की,
जिन्ह के बिमल बिबेक, सेस महेस न कही सकत [३४] [सोरठा]

माहि पत्री करी सिन्धु मसि, तरु लेखनी बनाए,
तुलसी गनपत सों तदपि, महिमा लिखी न जाए [३५]

धन्य धन्य माता पिता,धन्य पुत्र बार सोय,
तुलसी जो रामहिं भजे, जैसेहूँ कैसेहूँ कोय [३६]

तुलसी जाके बदन ते, धोखेहूँ निकसत राम,
ताके पग की पगतरी, मेरे तन को चाम [३७]

तुलसी भगत सुपच भलौ, भजै रैन दिन राम.
ऊँचो कुल केहि काम को, जहाँ न हरी को नाम [३८]

अति ऊँचे भू धरनि पर, भुजगन के अस्थान,
तुलसी अति नीचे सुखद, ऊख अन्न अरु पान [३९]

अति अनन्य जो हरि को दासा,
रतै नाम निसिदिन प्रति स्वासा।
तुलसी तेहि समान नहीं कोई,
हम नीकें देखा सब कोई॥ [४०] [चौपाई]

जदपि साधु सबही बिधि हीना,
तद्यपि समता के न कुलीना।
यह दिन रैन नाम उच्चरै,
वह नित मान अगिनी मंह जरै॥ [४१] [चौपाई]

दास रता एक नाम सों, उभय लोक सुख त्यागि,
तुलसी न्यारो ह्वै रहै, दहै न दुःख की आगि [४२]

मुरली तेरा मुरलीधर 5

मुरली तेरा मुरलीधर 5
प्रेम नारायण 'पंकिल'

सो कर नहीं बिता वासर दिन रात जागता रह मधुकर
जो सोता वह खो देता है मरुथल में जीवन निर्झर
सर्वसमर्पित कर इस क्षण ही साहस कर मिट जा मिट जा
टेर रहा सर्वार्तिभंजिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।21।।

सोच रहा क्या देख देख कितना प्यारा मनहर मधुकर
मात्र टकटकी बाँध देखते उमड़ पड़ेगा रस निर्झर
जीवन के प्रति रागरंग का तुम्हें सुना संगीत ललित
टेर रहा है मंजुमोहिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।22।।

देख रहा जो उसे देखने का संयोग बना मधुकर
दिशा शून्य चेतना खोज ले रासविहारी रस निर्झर
पर से निज पर ही निज दृग की फेर चपल चंचल पुतली
टेर रहा स्वात्मानुसंधिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।23।।

तेरे अधरों का गुंजन वह गीत वही स्वर वह मधुकर
उसे निहार निहाल बना ले पंकिल नयनों का निर्झर
थक थक बैठ गया तू फिर भी भेंज रहा वह संदेशा
टेर रहा है शतावर्तिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।24।।

अपने मन में ही प्रविष्ट नित कर ले उसका मन मधुकर
बस उसके मन का ही रसमय झर झर झरने दे निर्झर
जग प्रपंच को छीन तुम्हारा मन कर देगा बरसाना
टेर रहा है उरनिकुंजिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।25।।

बावरिया बरसाने वाली 6

बावरिया बरसाने वाली 6
प्रेम नारायण पंकिल

बोली "सुधि करो प्राण !कहते थे हमने देखा है सपना ।
वह मधुबेला भूलती नहीं भूलता न अधरों का कंपना।
देखा था अनाघ्रात कलिका सी किए जलज लोचन नीचे।
थी खड़ी वल्लभा वदन इंदु पर नील झीन अंचल खींचे।
मृदु दर्पणाभ कोमल कपोल की हुई असित अरुणाई थी।
नव कुबलय-दल-पड़-नख से रचती भू पर निज परछाईं थी।
सपने में अपना किया वही बावरिया बरसाने वाली -
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥६॥

Monday, 23 May 2016

मुरली तेरा मुरलीधर 4

मुरली तेरा मुरलीधर 4
"प्रेम नारायण पंकिल"

गहन तिमिर में दिशादर्शिका हो ज्यों दीपशिखा मधुकर
मरु अवनी की प्राण पिपासा हर लें ज्यों नीरद निर्झर
तथा मृतक काया में पंकिल भर नव श्वाँसों का स्पंदन
टेर रहा है नित्य नूतना मुरली तेरा मुरलीधर।।16।।

लघु जलकणिका को बाहों के पलने में ले ले मधुकर
हलराता दुलराता रहता ज्यों अविराम सिंधु निर्झर
बिन्दु बिन्दु में प्रतिपल स्पंदित तथा तुम्हारा रत्नाकर
टेर रहा है स्वजनादरिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।17।।

चिन्तित सोच विगत वासर क्यों व्यथित सोच भावी मधुकर
प्रवहित निशि वासर अनुप्राणित नित्य नवल जीवन निर्झर
पल पल जीवन रसास्वाद का तुम्हें भेंज कर आमंत्रण
टेर रहा है प्रियागुणाढ्या मुरली तेरा मुरलीधर।।18।।

गत स्मृतियों को जोड जोड क्यों दौड रहा मोहित मधुकर
सुधा नीरनिधि छोड बावरे मरता चाट गरल निर्झर
फंस किस आशा अभिलाषा में व्यर्थ काटता दिन पंकिल
टेर रहा है मधुरमाधवी मुरली तेरा मुरलीधर।।19।।

गूँथ प्राणमाला मतवाला आनेवाला है मधुकर
अति समीप आसीन तुम्हारे ही तो तेरा रस निर्झर
बड़भागिनी तुम्हें कर देगा ललित अंक ले वनमाली
टेर रहा है मनोहारिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।20।।

Sunday, 22 May 2016

बावरिया बरसाने वाली 5

बावरिया बरसाने वाली 5

सिक्ता कर रही सुरंग चूनरी ऋतु पावसी निगोड़ी थी ।
स्मृति कौंध गयी कैसे मोहन से मचती होड़ा-होड़ी थी ।
किस विधि भींगा था पाग उपरना हार गए थे बनवारी ।
सिर नवा खड़े थे हरी ताली दे दे हंसती थी व्रजनारी ।
थे नवल किशोर कुञ्ज में स्थित दे कोमल कर में करमाला।
शत-शत लीला तरंग स्मृति में बह गयी विरहिणी व्रजबाला।
"रसिकेश्वर! बात निहार रही बावरिया बरसाने वाली -
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥५॥

Sunday, 15 May 2016

बावरिया बरसाने वाली 4

भर रही अंग में थी अनंग-मद सिहर लहर पुरवईया की।
लगता कदम्ब की डाल-डाल पर मुरली बजी कन्हैया की।
घन की बूँदों ने भिंगो दिया कीर्तिदा कुमारी की काया ।
प्रिय संग घटी वृन्दावन की सुधियों का ज्वर उमड़ आया।
केकी-नर्तन था इधर, उधर थिरकती जलद में थी चपला।
नभ अवनि-बीच घी धूम रहे चुप कैसे, चीख उठी अबला।
"हो ललित त्रिभंग! कहाँ विकला बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥४॥

Saturday, 14 May 2016

मुरली तेरा मुरलीधर 3

मुरली तेरा मुरलीधर 3

मंदस्मित करुणा रसवर्षी वह अद्भुत बादल मधुकर
मृदु करतल सहला सहला सिर हरता प्राण व्यथा निर्झर मनोहारिणी चितवन से सर्वस्व तुम्हारा हर मनहर
टेर रहा है उरविहारिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।11।।

विविध भाव सुमनों की अपनी सजने दे क्यारी मधुकर
कोना कोना सराबोर कर बहे वहाँ सच्चा निर्झर
वह तेरे सारे सुमनों का रसग्राही आनन्दपथी
टेर रहा सर्वांतरात्मिका मुरली तेरा मुरलीधर।।12।।

मॅंडराते आनन पर तेरे उसके कंज नयन मधुकर
तृषित चकोरी सदृश देख तू उसका मुख मयंक निर्झर
युगल करतलों में रख आनन कर निहाल तुमको अविकल
टेर रहा है मन्मथमथिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।13।।

सब प्रकार मेरे मेरे हो गदगद उर कह कह मधुकर
युग युग से प्यासे प्राणों में देता ढाल सुधा निर्झर
भरिता कर देता रिक्ता को बिना दिये तुमको अवसर
टेर रहा है नादविग्रहा मुरली तेरा मुरलीधर।।14।।

माँग माँग फैला कर अंचल बिलख विधाता से मधुकर
लहरा दे कुरुप जीवन में वह अभिनव सुषमा निर्झर
उसकी लीला वही जानता ढरकाता रस की गगरी
टेर रहा है प्रेमभिक्षुणि मुरली तेरा मुरलीधर।।15।।

Friday, 13 May 2016

बावरिया बरसाने वाली 3

बावरिया बरसाने वाली 3

पी कहाँ पी कहाँ रटे जा रहा था पपीहरा उत्पाती ।
घन गरज-गरज इंगित करते लाये मनमोहन पाती।
मल्लिका मंजू पर मचल रहे श्यामल मिलिंद मतवारे थे।
नवकमल दण्ड मृदु दबा चंच में उड़े हंस सित प्यारे थे ।
थी बिछड़ गयी लावण्यमयी श्री राधा-माधव की जोरी।
कर पल्लव जोड़ पुकार उठी वृषभान किशोरी अतिभोरी।
"क्यों भूल गए प्राणेश! विकल बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥३॥

Wednesday, 11 May 2016

मुरली तेरा मुरलीधर 2

मुरली तेरा मुरलीधर 2

प्रेम नारायण "पंकिल"

नाम रूप पद बोध विसर्जित कर सच्चामय बन मधुकर
मनोराज्य में ही रम सुखमय झर झर झर झरता निर्झर
सच्चे प्रियतम के कर में रख पंकिल प्राणों की वीणा
टेर रहा अमन्दगुंजरिता मुरली तेरा मुरलीधर।।6।।

यत्किंचित जो भी तेरा है उसका ही कर दे मधुकर
करता रहे तुम्हें नित सिंचित प्रभुपद कंज विमल निर्झर
मलिन मोह आवरण भग्न कर करले प्रेम भरित अंतर
टेर रहा हे भुवनमोहिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।7।।

मनोराज्य में देख पुश्पिता उसकी तरुलतिका मधुकर
उसकी मनहर भावभरी भ्रमरी तितली सरणी निर्झर
स्नेह सुरभि बांटता सलोना मनभावन बंशीवाला
टेर रहा है अमृतसंश्रया मुरली तेरा मुरलीधर।।8।।

तुम्हें पुकार मधुर वाणी में बार बार मोहन मधुकर
कर्णपुटों में ढाल रहा है वह आनन्दामृत निर्झर
कहां गया संबोधनकर्ता विकल प्राण कर अन्वेषण
टेर रहा है आत्मविग्रहा मुरली तेरा मुरलीधर।।9।।

रंग रंग की राग रागिनी छेड बांसुरी में मधुकर
बूंद बूंद में उतर प्रीति का सिंधु बन गया रस निर्झर
तुम्हें बहुत चाहता तुम्हारा वह प्यारा सच्चा प्रियतम
टेर रहा सरसारसवंती मुरली तेरा मुरलीधर।।10।।

Tuesday, 10 May 2016

बावरिया बरसाने वाली 2

बावरिया बरसाने वाली 2

प्रेम नारायण पंकिल

थे नाप रहे नभ ओर-छोर चढ़ धारधार पर धाराधर ।
दामिनी दमक जाती क्षण-क्षण श्यामलीघटाओं से सत्वर ।
कल-कल छल-छल जलरव मुखरित था यमुना-पुलिन मनोहारी ।
तन से अठखेली कर बरबस खींचता प्रभंजन था सारी ।
परिरंभण में बांधे विटपों को थीं वल्लरी बिना बाधा।
अंचल पसार कर लगी बिलखने आ जा राधा के कांधा।
व्रजचंद्र! पधारो बिलख रही बावरिया बरसाने वाली।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥ २॥

Monday, 9 May 2016

मुरली तेरा मुरलीधर 1

मुरली तेरा मुरलीधर

विरम विषम संसृति सुषमा में मलिन न कर मानस मधुकर,
वहां स्रवित संतत रसगर्भी सच्चा श्री शोभा निर्झर !
सुन्दरता सरसता स्रोत बस कल्लोलिनी कुलानन्दी
टेर रहा वृन्दावनेश्वरी मुरली तेरा मुरलीधर !! 1 !!

वर्ण वर्ण खग कलरव स्वर में बोल रहा है वह मधुकर
विटप वृंत मरमर सरि कलकल बीच उसी का स्वर निर्झर
उर अंबर में बोध प्रभा का उगा वही दिनमान प्रखर
टेर रहा है विश्वानंदा मुरली तेरा मुरलीधर ।।2।।

संसृति सब सच्चे प्रियतम की उससे भाग नहीं मधुकर
उसमें जागृति का ही प्रेमी बन जा अनुरागी निर्झर
जो जग में जागरण सजाये वही मुकुन्द कृपा भाजन
टेर रहा संज्ञानसंधिनी मुरली तेरा मुरलीधर ।।3।।

जिस क्षण जग में हुए सर्वथा तुम असहाय अबल मधुकर
उस क्षण से ही क्षीर पिलाने लगती कृष्ण धेनु निर्झर
अपना किये न कुछ होना है सूत्रधार वह प्राणेश्वर
टेर रहा अबलावलंबिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।4।।

छोटी से छोटी भेंटें भी प्रिय की ही पुकार मधुकर
मुदित मग्न मन नाच बावरे पाया प्रिय दुलार निर्झर
कहां पात्रता थी तेरी यह तो उसकी ही महाकृपा
टेर रहा अप्रतिमकृपालुनि मुरली तेरा मुरलीधर।।5।।

बावरिया बरसाने वाली 1

बावरिया बरसाने वाली
प्रेम नारायण पंकिल
1

व्रजमंडल नभ में उमड़-घुमड़ घिर आए आषाढ़ी बादल ।
उग गया पुरंदर धनुष ध्वनित उड़ चले विहंगम दल के दल ।
उन्मत्त मयूरी उठी थिरक श्यामली निरख नीरद माला ।
कर पर कपोल रख निभृत कुञ्ज में अश्रु बहाती ब्रजबाला ।
मृदु कीर गर्भ पांडुर कपोल पर बिखर गयी कज्जल रेखा ।
विरहिणी राधिका उठी चीख जब जलद कृष्णवर्णी देखा ।
घनश्याम पधारो बिलख रही बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥