Tuesday, 18 October 2016

भक्ति और सन्त निष्ठा , सन्त रविदास

*भक्ति और संत निष्ठां*

प्रभु को पाना है तो प्रेम की गली में से गुजरना है।और प्रेम की गली इतनी पतली है कि दो उसमें चल ही नहीं सकते हमें एक होना ही है।

यह प्रसंग एक राजा की जिन्दगी का है, उसका नाम था राजा पीपा। उसने दुनिया में जो कुछ इन्सान पाना चाहता है, वो सब कुछ पाया था, महल, हीरे-जवाहरात, नौकर-चाकर, सब उसका आदेश मानते थे।

इतना सब कुछ पाने के बावजूद अचानक एक दिन उसे लगा कि कुछ कमी है, कुछ ऐसा है जो नहीं है।अंदर एक तलब-सी जग गई प्रभु को पाने की। अब राजा कभी एक महापुरुष के पास जाएं, कभी दूसरे के पास, पर प्रभु को पाने का रास्ता मिले ही नहीं।

राजा बड़ा निराश था तब किसी ने बताया कि एक संत हैं रविदास जी महाराज! आप उनके पास जाएं।

राजा पीपा संत रविदास जी के पास पहुँचे।
वहाँ देखा कि वो एक बहुत छोटी-सी झोपड़ी में रहते थे-भयानक गरीबी, उस झोपड़ी में तो कुछ था ही नहीं।

राजा को लगा, ये तो खुद ही झोपड़ी में जी रहे हैं, यहाँ से मुझे क्या मिलेगा।

लेकिन वहाँ पहुँच ही गए थे तो अन्दर भी गए और राजा ने संत रविदास जी को प्रणाम किया।

संत रविदास जी ने पूछा, किस लिए आए हो?

राजा ने इच्छा बता दी, प्रभु को पाना चाहता हूँ।

उस समय संत रविदास महाराज एक कटोरे में चमड़ा भिगो रहे थे-मुलायम करने के लिए, तो उन्होंने कहा, ठीक है, अभी बाहर से आए हो थके होगे, प्यास लगी होगी लो तब तक यह जल पियो।

कह कर वही चमड़े वाला कटोरा राजा की ओर बढ़ा दिया।

राजा ने सोचा, ये क्या कर दिया कटोरे में पानी है, उसमें चमड़ा डला हुआ है, वो गन्दगी से भरा हुआ है, उसको कैसे पी लूँ?

फिर लगा कि अब यहाँ आ गया हूँ, सामने बैठा हूँ तो करूँ क्या?
इन संत जी का आग्रह कैसे ठुकराऊँ ?

उस समय बिजली होती नहीं थी, झोपड़ी में अन्धेरा था, सो राजा ने मुँह से लगाकर सारा पानी अपने कपडो के अन्दर उडेल दिया और पीये बगैर वहाँ से चला आया।

वापस घर आ कर उसने कपडे उतारे धोबी को बुलाया और कहा कि इसको धो दो।

धोबी ने राजा का वो कपडा अपनी लड़की को दे दिया धोने के लिए।

लड़की उसे ज्यों-ज्यों धोने लगी, उस पर प्रभु का रंग चढ़ना शुरू हो गया।

उसमें मस्ती आनी शुरू हो गई और इतनी मस्ती आनी शुरू हो गई कि आस-पास के दूसरे लोग भी उसके साथ आ कर प्रभु के भजन मे गाने-नाचने लगे।

धोबी की लड़की बड़ी मशहूर भक्तिन हो गई।

अब धीरे-धीरे खबर राजा के पास भी पहुँची। राजा उससे भी मिलने पहुँचा, बोला कि कुछ मेरी भी मदद कर दो।

धोबी की लड़की ने बताया कि जो कपडा आपने भेजा था, मैं तो उसी को साफ कर रही थी, तभी से लौ लग गई है, मेरी रूह अन्दर की ओर उड़ान कर रही है।

राजा को सारी बात याद आ गई और राजा भागा- भागा फिर संत रविदास जी महाराज के पास गया और उनके पैरों में पड़ गया।

फिर रविदास महाराज ने उसको नाम की देन दी।

जब तक इन्सान अकिंचन न बन जाए, छोटे से भी छोटा, तुच्छ से भी तुच्छ न हो जाये, तब तक नम्रता नहीं आती।
और जब तक विनम्र न हो जायें, प्रभु नहीं मिल सकते।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे राम
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Sunday, 16 October 2016

श्री सनातन जी और पारस पत्थर

श्री सनातन जी और पारस पत्थर
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सनातन जी अपना सब कुछ दान करके महाप्रभु के सेवक बन गये थे और उनकी आज्ञा से वृन्दावन मे भक्ति का प्रचार करते थे.सनातन जी एक दिन यमुना में स्नान करने के निमित्त जा रहे थे रास्ते में एक पारस पत्थर का टुकडा़ इन्हें पडा़ मिला, इन्होने उसे वही धूलि में ढक दिया.
 
अकस्मात उसी दिन एक ब्राहाण उनके पास आकर धन की याचना करने लगा इन्होने बहुत कहा -भाई हम भिक्षुक है माँगकर खाते है,भला हमारे पास धन कहाँ है किन्तु वह कहने लगा – महाराज! मैंने धन की कामना से ही अनेको वर्षो तक शिव जी की आराधना की,उन्होंने संतुष्ट होकर रात्रि के समय स्वप्न में मुझसे कहा -हे ब्राहाण तू जिस इच्छा से मेरा पूजन कर रहा है वह इच्छा तेरी वृन्दावन में सनातन जी गोस्वामी के समीप जाने से पूरी होगी बस उन्ही के स्वपन से में आप की शरण में आया हूँ.

इस पर सनातन जी को उस पारस पत्थर की याद आई उन्होंने कहा -अच्छी बात है मेरे साथ यमुना किनारे आओ,दूर से ही इशारा करते हुए उन्होंने कहा -यहाँ कही पारस पत्थर है उस ब्राहमण ने बहुत ढूँढा,थोड़ी देर बाद उसे पारस पत्थर मिल गया उसी समय उसने एक लोहे का टुकड़े से उसे छुआकर उसकी परीक्षा की देखते ही देखते लोहा सोना बन गया ब्राहाण प्रसन्न होकर घर चल दिया.

वह आधे रास्ते तक पँहुचा की उसका विचार एकदम बदल गया  उसने सोचा जो महापुरुष घर-घर जाकर टुकडे माँगकर खाता है और संसार की इतनी बहुमूल्य समझी जाने वाली इस मणि को स्पर्श तक नहीं करता अवश्य ही उसके पास इस असाधारण पत्थर से बढकर भी कोई और वस्तु है मै तो उनसे उसी को प्राप्त करुँगा !

इस पारस को देकर तो उन्होंने मुझे बहलाया है, यह सोच कर वह लौटकर फिर इनके समीप आया और चरणों में गिरकर रो-रोकर अपनी मनोव्यथा सुनाई उसके सच्चे वैराग्य को देखकर इन्होने पारस को यमुना जी में फिकवा दिया और उसे अमूल्य हरिनाम का उपदेश किया जिससे वह कुछ काल में ही संत बन गया.

किसी ने सच ही कहा है –
“ पारस में अरु संत में, संत अधिक कर मान |
   वह लोहा सोना करै यह करै आपु समान ||”

!! जय जय श्री राधे !!

Friday, 14 October 2016

जगन्नाथदास महाराज , भगवान द्वारा शौच आदि सेवा

संत कहते हैं  :- भगवान बोले मैं भक्तन को दास

एक संत थे जिनका नाम था जगन्नाथदास महाराज। वे भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते थे। वे जब वृध्द हुए तो थोड़े बीमार पड़ने लगे। उनके मकान की उपरी मंजिल पर वे स्वयं और नीचे उनके शिष्य रहेते थे। रात को एक-दो बार बाबा को दस्त लग जाती थी, इसलिए "खट-खट" की आवाज करते तो कोई शिष्य आ जाता और उनका हाथ पकड़कर उन्हें शौचालय मै ले जाता। बाबा की सेवा करनेवाले वे शिष्य जवान लड़के थे।

एक रात बाबा ने खट-खटाया तो कोई आया नही। बाबा बोले "अरे, कोई आया नही ! बुढापा आ गया, प्रभु !"
इतने में एक युवक आया और बोला "बाबा ! मैं आपकी मदद करता हूं"

बाबा का हाथ पकड़कर वह उन्हें शौचालय मै ले गया। फिर हाथ-पैर घुलाकर बिस्तर पर लेटा दिया।
जगन्नाथदासजी बोले "यह कैसा सेवक है की इतनी जल्दी आ गया ! इसके स्पर्ष से आज अच्छा लग रहा है, आनंद-आनंद आ रहा है"।

जाते-जाते वह युवक लौटकर आ गया और बोला "बाबा! जब भी तुम्ह ऐसे 'खट-खट' करोगे न, तो मैं आ जाया करूंगा। तुम केवल विचार भी करोगे की 'वह आ जाए' तो मैं आ जाया करूँगा"

बाबा: "बेटा तुम्हे कैसे पता चलेगा?"
युवक: "मुझे पता चल जाता है"
बाबा: "अच्छा ! रात को सोता नही क्या?"
युवक: "हां, कभी सोता हूं, झपकी ले लेता हूं। मैं तो सदा सेवा मै रहता हूं"

जगन्नाथ महाराज रात को 'खट-खट' करते तो वह युवक झट आ जाता और बाबा की सेवा करता। ऐसा करते करते कई दिन बीत गए। जगन्नाथदासजी सोचते की 'यह लड़का सेवा करने तुरंत कैसे आ जाता है?'

एक दिन उन्होंने उस युवक का हाथ पकड़कर पूछा की "बेटा ! तेरा घर किधर है?"
युवक: "यही पास मै ही है। वैसे तो सब जगह है"
बाबा: "अरे ! ये तू क्या बोलता है, सब जगह तेरा घर है?"

बाबा की सुंदर समाज जगी। उनको शक होने लगा की 'हो न हो, यह तो अपनेवाला ही, जो किसीका बेटा नही लेकिन सबका बेटा बनने को तैयार है, बाप बनने को तैयार है, गुरु बनने को तैयार है, सखा बनने को तैयार है...'

बाबा ने कसकर युवक का हाथ पकड़ा और पूछा "सच बताओ, तुम कौन हो?"
युवक: "बाबा ! छोडिये, अभी मुजे कई जगह जाना है"
बाबा: "अरे ! कई जगह जाना है तो भले जाना, लेकिन तुम कौन हो यह तो बताओ"
युवक: "अच्छा बताता हूं"

देखते-देखते भगवन जगन्नाथ का दिव्य विग्रह प्रकट हो गया।

"देवधि देव ! सर्वलोके एकनाथ ! सभी लोकों के एकमात्र स्वामी ! आप मेरे लिए इतना कष्ट सहते थे ! रात्रि को आना, शौचालय ले जाना, हाथ-पैर धुलाना..प्रभु ! जब मेरा इतना ख्याल रख रहे थे तो मेरा रोग क्यो नही मिटा दिया ?"

तब मंद मुस्कुराते हुए भगवन बोले "महाराज ! तीन प्रकार के प्रारब्ध होते है: मंद, तीव्र, तर-तीव्र, मंद प्रारब्ध। सत्कर्म से, दान-पुण्य से भक्ति से मिट जाता है। तीव्र प्रारब्ध अपने पुरुषार्थ और भगवन के, संत महापुरुषों के आशीर्वाद से मिट जाता है। परन्तु तर-तीव्र प्रारब्ध तो मुझे भी भोगना पड़ता है। रामावतार मै मैंने बलि को छुपकर बाण मारा था तो कृष्णावतार में उसने व्याध बनकर मेरे पैर में बाण मारा।

तर-तीव्र प्रारब्ध सभीको भोगना पड़ता है। आपका रोग मिटाकर प्रारब्ध दबा दूँ, फिर क्या पता उसे भोगने के लिए आपको दूसरा जन्म लेना पड़े और तब कैसी स्तिथि हो जाय? इससे तो अच्छा है अभी पुरा हो जाय...और मुझे आपकी सेवा करने में किसी कष्ट का अनुभव नही होता, भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन का दास"

"प्रभु ! प्रभु ! प्रभु ! हे देव हे देव ! ॥" कहेते हुए जगन्नाथ दास महाराज भगवान के चरणों मै गिर पड़े और भावान्मधुर्य मै भाग्वात्शंती मै खो गए। भगवान अंतर्धान हो गए।

शरण में तेरी रे दीनानाथ

Tuesday, 11 October 2016

मान कुँवरी जी की भक्ती

(((( मान कुँवरी जी की भक्ती )))))).एक सेठ की बेटी मान कुँवरी दस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गई।.थोड़े ही दिनों के पश्चात् श्री गुसांई जी गुजरात पधारे तो इस मान कुँवरी को ब्रह्म सम्बंध कराया इसके यहां श्री मदन मोहन जी की सेवा पधराई ।.यह श्री ठाकुर जी की सेवा करने लगी । इस बाई ने श्री मदन मोहन जी की जीवन पर्यन्त सेवा की ।.इसने श्री मदन मोहन जी के स्वरूप के अलावा अन्य किसी स्वरूप के दर्शन भी नहीं किए । यह सेवा छोड़कर कभी घर से बाहर भी नहीं गई ।.जैसे श्री मदन मोहन जी है वैसे सभी के यहाँ श्री ठाकुर जी का स्वरूप होगा, यह मन में निश्चय करके रखती थी|.जब मानकुँवरी साठ वर्ष की हुई तो इसके पिता का देवलोक हो गया । अत: वह मनुष्य रखकर सेवा करने लगी ।.एक दिन एक विरक्त वैष्णव उस गाँव में आया। शीतकाल का समय था । मानकुँवरी के घर आकर ठहरा था|.उसने अपने श्री ठाकुर जी की झाँपी मानकुँवरी को दी और स्वयं तालाब पर स्नान करने चला गया ।.मानकुँवरी बाई ने श्री ठाकुर जी को जगाया, उसकी झाँपी में श्री ठाकुर जी बाल कृष्ण जी थे ।.उस बाई ने श्री मदन मोहन जी के अलावा अन्य किसी भी स्वरूप के दर्शन नहीं किये थे ।.वह विचार करने लगी । कि ठण्ड के कारण श्री ठाकुर जी सिकुड़ गए है, ठण्ड बहुत पड़ती है| इस वैष्णव ने श्री ठाकुर जी के लिए ठण्ड का कोई उपचार नहीं रखा है ।.उस बाई के नेत्रों से जल प्रवाहित होने लगा । उसके मन में बहुत ताप हुआ, वह अंगीठी लेकर बैठ गई ।.तेल में अनेक प्रकार की गरम औषध डालकर तेल को गर्म किया और सुहाते - सुहाते तेल से श्री ठाकुर जी के हाथ पैर मींढने लगी ।.उसने समझा श्री ठाकुर जी को बहुत श्रम हुआ है। उसने श्रम के लिए श्री ठाकुर जी से क्षमा याचना की ।.उसकी प्रार्थना सुनकर तथा उसके शुद्धभाव को देखकर श्री बाल कृष्ण भगवान श्री मदन मोहन जी के स्वरूप में हो गए। डोकरी बाई बहुत प्रसन्न हुई ।.डोकरी ने रसोई करके भोग रखा, उस वैष्णव ने आकर दर्शन किए । श्री ठाकुर जी को शीत के उपचार के रूप में रजाई ओढा रखी थी अत: वह वैष्णव समझ ही न सका कि यह कौन से श्री ठाकुर जी हैं.वह वैष्णव वहाँ दस-पन्द्रह दिन रहा । वह जाने लगा तो बाई ने आग्रह किया कि शीत पड़ रही है श्री ठाकुर जी को श्रम होता है अत: शीतकाल यहीं व्यतीत करो । फाल्गुन में चले जाना।.उसने अपने श्री ठाकुर जी की झांपी को सँभाला । श्री बाल कृष्ण केस्थान पर श्री मदन मोहन जी के स्वरूप को देख कर वैष्णव ने मान कुँवरी बाई से झगडा किया,.वह बोला - "तुमने मेरे श्री ठाकुर जी को बदल लिया है ।".मानकुँवरी ने बहुत समझाया । अन्तत: झगडा श्री गोकुल तक पहुँचा । दोनों जने श्री गोकुल में श्री गुसांई जी के समक्ष उपस्थित हुए । श्री गुसांई जी ने दोनों की बातें सुनी ।.श्री गुसांई जी ने झांपी लेकर श्री ठाकुर जी को देखा ।.श्री ठाकुर जी ने श्री गुसांई जी से कहा - "मैं डोकरी के भाव के कारण बाल कृष्ण से मदन मोहन हुआ हूँ ।".इस डोकरी ने मेरे मदन मोहन स्वरूप के अलावा अन्य किसी स्वरूप के दर्शन ही नहीं किए हैं अत: इसके भाव में कोई विक्षेप न हो, मैं श्री मदन मोहन के स्वरूप में अवस्थित हूँ ।.श्री गुसांई जी ने उनका झगडा निपटा दिया| उन्होंने कहा - " ये हीतेरे श्री ठाकुर जी हैं ।".डोकरी ने उससे कहा- " तू श्री ठाकुर जी को ठण्ड में मारता है, ऐसे लोगों को श्री ठाकुर जी पधरा कर नहीं दिये जाने चाहिए।".श्री गुसांई जी डोकरी के शुद्ध भाव को देख कर हँसने लगे ।.वह वैष्णव उस डोकरी के पैरों में पड़ गया। उसने कहा - " मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा, तुम्हारे यहाँ टहल करूँगा ।".वह मानकुँवरी बाई श्री यमुना जी का जल पान करके श्री नाथ जी के दर्शन करने गई । श्री नाथ जी के दर्शन करके अपने देश में जाकर श्री ठाकुर जी की सेवा करने लगी ।~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))~~~~~~~~~~~~~

जयकृष्णदास बाबा , गोपाल की उल्टी रीत

(((((((  गोपाल की उल्टी रिति  )))))))
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नित्य लीला स्थली श्री धाम वृंदावन के काम्यवन मे श्री जयकृष्ण दास बाबा जी गोप-बालको के उत्पात से तंग आकर विमलकुण्ड़ के किनारे एकांत कुटिया मे रहकर भजन किया करते थे।
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श्री जयकृष्ण दास बाबा जी हर समय भजन में लीन रहते थे। केवल एक बार मधुकरी के लिए ग्राम में जाया करते और शेष समय दिन-रात हरिनाम जपते।
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एक दिन मध्याह्न में सिद्ध जयकृष्ण दास बाबा जी की अन्तरंग सेवा में ठाकुर जी की एक ऐसी घटना घटी कि वे' श्रीकृष्ण' विरह मे व्याकुल होने लगे।
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हुआ यह की उस समय विमलाकुण्ड़ के चारों ओर असंख्य गाय और गोप बालक आकर उपस्थित हुए।
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गोप-बालक बाहर से चीखकर कहने लगे :- बाबा प्यास लगी है, जल प्याय दे।
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जयकृष्ण दास बाबा तो पहले से ही गोप-बालको के उत्पात से परेशान थे, इसलिए बाबा चुपचाप अपनी कुटिया मे बैठे रहे।
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पर ठाकुर जी कहा मानने वाले थे, अपने गोप-सखाओं के साथ तरह-तरह के उत्पात करने लगे।
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कुटिया के दरवाजे के पास आकर बोले :- अरे ओ बँगाली बाबा ! हम जाने हैं तु कहा भजन करे है।
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दयाहीन बाबा कसाई के बराबर होय हैं। अरे बाबा कुटिया से निकलकर जल प्याय दे, हमको बड़ी प्यास लगी है।
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अब गोप-बालक बाबा को परेशान करने लगे। जयकृष्ण दास बाबा बालको के उत्पात से क्रुद्ध हो लकड़ी हाथ में लेकर कुटिया से बाहर निकल पड़े।
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जयकृष्ण दास बाबा जैसे ही कुटिया से बाहर आये तो देखा की कुटिया के चारों तरफ असंख्य गाय और गोप-बालक हैं।
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सभी गोप-बालक एक से बढ़कर एक सुंदर। एक से बढ़कर एक अदभुत और मनमोहक श्रृंगार।
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उन गोप-बालको को देखकर जयकृष्ण दास बाबा जी का क्रोध ठंड़ा पड़ गया।
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जयकृष्ण दास बाबा ने गोप-बालको से पुछा:- लाला तुम सभी कौन गाँव से आये हो ?
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सभी बालको ने एक साथ जबाब दिया:- नंदगाँव तें।
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बाबा ने एक बालक को पास बुलाकर प्रेम से पुछा :- तेरा नाम क्या हैं ?
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बालक ने कहा :- मेरा नाम 'कन्हैंया' है।
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एक और बालक से बाबा ने पुछा:- लाला तेरा नाम क्या है ?
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बालक ने कहा:- बलदाऊ ! मेरा नाम 'बलदाऊ' है।
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तब गोप बालक कन्हैया ने कहा :- "देख बाबा जी पहले पियाय दे,पाछे बात करियो।"
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बाबा ने स्नेह परवश हो करुवे से गोप-बालको को जल पिला दिया।
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बालक ने कहा :- "देख बाबा हम नित्य किते दूर से आवें है, प्यासे जायं है। तू कछू जल और बालभोग राख्यो कर।"
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"नहीं-नहीं रोज-रोज आकर अपाधि नहीं करना" कहते हुए बाबा कुटिया मे चले गये।
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बाबा कुटिया मे आकर सोचने लगे :- "ऐसे सुंदर मनमोहक बालक और ऐसी सुंदर गायें तो मैंने कभी नहीं देखी, न कभी ऐसी मधुर बोली ही सुनी। यह इस जगत के था किसी और जगत के।"
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यह सब सोचते हुए जयकृष्ण दास बाबा जी उन गोप-बालको को एक बार  फिर देखने को जैसे ही कुटिया से बाहर निकले वहाँ न गायें थी और ना ही कोई गोप-बालक। दूर दूर तक गायों तथा बालको के कोई चिन्ह नही थे।
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जयकृष्ण दास बाबा दुःखित और अनुतप्त हो अपने दुर्भाग्य और गोप बालको के प्रति अपने अंतिम वाक्य "रोज-रोज आकर अपाधि नहीं करना" की बात सोचते सोचते आविष्ट हो गये।
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बाबा रात भर 'प्रिया प्रियतम' की याद मे अश्रु विसर्जन करते रहे।
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उसी समय 'भगवान श्रीकृष्ण' बाबा के सामने उपस्थित हो उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले :-'बाबा दुःख मत कर कल मैं तेरे पास आऊँगो।'
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तब श्री जयकृष्ण दास बाबा जी का आवेश भंग हुआ और उन्होंने धैर्य धारण किया।
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दुसरे दिन एक वृद्धा व्रज माई जयकृष्ण दास बाबा की कुटिया मे गोपाल की एक मूर्ती लेकर आई और बाबा से बोली :-
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"बाबा मोपे अब गोपाल की सेवा नाय होय। बाबा आज से तू मेरे गोपाल की सेवा किया कर।"
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जयकृष्ण दास बाबा ने कहा :- "माई मैं कैसे इनकी सेवा करूँगा ? रोज सेवा की सामग्री और भोग कहाँ से लाऊँगा ?"
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"बाबा तू बस सेवा किया करना सेवा की सामग्री मैं रोज आकर दे जाऊँगी" गोपाल को बाबा को देकर ऐसा कहते हुए वृद्धा माई चली गई।
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गोपाल जी की रूप माधुरी देख बाबा मुग्ध हो गये।
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उसी रात जयकृष्ण दास बाबा को स्वप्न में वृद्धा माई ने श्री वृन्दा जी के रूप मे दर्शन दिये।
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गोपाल की उल्टी रीति है। अगर कोई बुलाता है तब भी उसके पास नहीं जाते, और कभी कोई नहीं भी बुलाता तो उसके पास जरूर जाते है।
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ऋषि मुनि भी बुला बुलाकर हार जाते है, उनके मानस पटल पर भी कभी उदय नहीं होते।
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पर उनके प्रेमी भक्त उन्हें नहीं भी बुलाते तो हाथ धोकर अपने भक्त के पीछे पड़ जाते हैं।
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जयकृष्ण दास बाबा ने उनके आने को उपाधि मानकर उनसे यही कहा था न "रोज-रोज आकर अपाधि नहीं करना"
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इसलिए आज ठाकुर जी बाबा के पास आकर ऐसे जमकर बैठे की जाने का नाम भी नहीं लेते।
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Monday, 10 October 2016

मान कुँवरी जी की भक्ती

(((( मान कुँवरी जी की भक्ती )))))).एक सेठ की बेटी मान कुँवरी दस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गई।.थोड़े ही दिनों के पश्चात् श्री गुसांई जी गुजरात पधारे तो इस मान कुँवरी को ब्रह्म सम्बंध कराया इसके यहां श्री मदन मोहन जी की सेवा पधराई ।.यह श्री ठाकुर जी की सेवा करने लगी । इस बाई ने श्री मदन मोहन जी की जीवन पर्यन्त सेवा की ।.इसने श्री मदन मोहन जी के स्वरूप के अलावा अन्य किसी स्वरूप के दर्शन भी नहीं किए । यह सेवा छोड़कर कभी घर से बाहर भी नहीं गई ।.जैसे श्री मदन मोहन जी है वैसे सभी के यहाँ श्री ठाकुर जी का स्वरूप होगा, यह मन में निश्चय करके रखती थी|.जब मानकुँवरी साठ वर्ष की हुई तो इसके पिता का देवलोक हो गया । अत: वह मनुष्य रखकर सेवा करने लगी ।.एक दिन एक विरक्त वैष्णव उस गाँव में आया। शीतकाल का समय था । मानकुँवरी के घर आकर ठहरा था|.उसने अपने श्री ठाकुर जी की झाँपी मानकुँवरी को दी और स्वयं तालाब पर स्नान करने चला गया ।.मानकुँवरी बाई ने श्री ठाकुर जी को जगाया, उसकी झाँपी में श्री ठाकुर जी बाल कृष्ण जी थे ।.उस बाई ने श्री मदन मोहन जी के अलावा अन्य किसी भी स्वरूप के दर्शन नहीं किये थे ।.वह विचार करने लगी । कि ठण्ड के कारण श्री ठाकुर जी सिकुड़ गए है, ठण्ड बहुत पड़ती है| इस वैष्णव ने श्री ठाकुर जी के लिए ठण्ड का कोई उपचार नहीं रखा है ।.उस बाई के नेत्रों से जल प्रवाहित होने लगा । उसके मन में बहुत ताप हुआ, वह अंगीठी लेकर बैठ गई ।.तेल में अनेक प्रकार की गरम औषध डालकर तेल को गर्म किया और सुहाते - सुहाते तेल से श्री ठाकुर जी के हाथ पैर मींढने लगी ।.उसने समझा श्री ठाकुर जी को बहुत श्रम हुआ है। उसने श्रम के लिए श्री ठाकुर जी से क्षमा याचना की ।.उसकी प्रार्थना सुनकर तथा उसके शुद्धभाव को देखकर श्री बाल कृष्ण भगवान श्री मदन मोहन जी के स्वरूप में हो गए। डोकरी बाई बहुत प्रसन्न हुई ।.डोकरी ने रसोई करके भोग रखा, उस वैष्णव ने आकर दर्शन किए । श्री ठाकुर जी को शीत के उपचार के रूप में रजाई ओढा रखी थी अत: वह वैष्णव समझ ही न सका कि यह कौन से श्री ठाकुर जी हैं.वह वैष्णव वहाँ दस-पन्द्रह दिन रहा । वह जाने लगा तो बाई ने आग्रह किया कि शीत पड़ रही है श्री ठाकुर जी को श्रम होता है अत: शीतकाल यहीं व्यतीत करो । फाल्गुन में चले जाना।.उसने अपने श्री ठाकुर जी की झांपी को सँभाला । श्री बाल कृष्ण केस्थान पर श्री मदन मोहन जी के स्वरूप को देख कर वैष्णव ने मान कुँवरी बाई से झगडा किया,.वह बोला - "तुमने मेरे श्री ठाकुर जी को बदल लिया है ।".मानकुँवरी ने बहुत समझाया । अन्तत: झगडा श्री गोकुल तक पहुँचा । दोनों जने श्री गोकुल में श्री गुसांई जी के समक्ष उपस्थित हुए । श्री गुसांई जी ने दोनों की बातें सुनी ।.श्री गुसांई जी ने झांपी लेकर श्री ठाकुर जी को देखा ।.श्री ठाकुर जी ने श्री गुसांई जी से कहा - "मैं डोकरी के भाव के कारण बाल कृष्ण से मदन मोहन हुआ हूँ ।".इस डोकरी ने मेरे मदन मोहन स्वरूप के अलावा अन्य किसी स्वरूप के दर्शन ही नहीं किए हैं अत: इसके भाव में कोई विक्षेप न हो, मैं श्री मदन मोहन के स्वरूप में अवस्थित हूँ ।.श्री गुसांई जी ने उनका झगडा निपटा दिया| उन्होंने कहा - " ये हीतेरे श्री ठाकुर जी हैं ।".डोकरी ने उससे कहा- " तू श्री ठाकुर जी को ठण्ड में मारता है, ऐसे लोगों को श्री ठाकुर जी पधरा कर नहीं दिये जाने चाहिए।".श्री गुसांई जी डोकरी के शुद्ध भाव को देख कर हँसने लगे ।.वह वैष्णव उस डोकरी के पैरों में पड़ गया। उसने कहा - " मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा, तुम्हारे यहाँ टहल करूँगा ।".वह मानकुँवरी बाई श्री यमुना जी का जल पान करके श्री नाथ जी के दर्शन करने गई । श्री नाथ जी के दर्शन करके अपने देश में जाकर श्री ठाकुर जी की सेवा करने लगी ।~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))~~~~~~~~~~~~~

Tuesday, 4 October 2016

चटोरे मदनमोहन

(((((((((  चटोरे मदनमोहन  )))))))))
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सनातन गोस्वामी जी मथुरा में एक चौबे के घर मधुकरी के लिए जाया करते थे,
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उस चौबे की स्त्री परमभक्त और मदन मोहन जी की उपासिका थी, उसके घर बाल भाव से मदन मोहन भगवान विराजते थे।
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असल में सनातन जी उन्ही मदन मोहन जी के दर्शन हेतु प्रतिदिन मधुकरी के बहाने जाया करते थे।
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मदन मोहन जी तो ग्वार ग्वाले ही ठहरे ये आचार विचार क्या जाने उस चौबे के लड़के के साथ ही एक पात्र में भोजन करते थे,
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ये देख सनातन जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, ये मदनमोहन तो बड़े वचित्र है।
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एक दिन इन्होने आग्रह करके मदन मोहन जी का उच्छिष्ठ (झूठा) अन्न मधुकरी में माँगा,
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चौबे की स्त्री ने भी स्वीकार करके दे दिया, बस फिर क्या था, इन्हे उस माखन चोर की लपलपाती जीभ से लगे हुए अन्न का चश्का लग गया, ये नित्य उसी अन्न को लेने जाने लगे।
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एक दिन मदन मोहन ने इन्हे स्वप्न में दर्शन देकर कहा, बाबा तुम रोज इतनी दूर से आते हो, और इस मथुरा शहर में भी हमे ऊब सी मालूम होवे हे
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तुम उस चौबे से हमको मांग के ले आओ हमको भी तुम्हारे साथ जंगल में रहनो है।
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ठीक उसी रात को चौबे को भी यही स्वप्न हुआ की हमको आप सनातन बाबा को दान कर दो।
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दूसरे दिन सनातन जी गये उस चौबे के घर और कहने लगे मदन मोहन को अब जंगल में हमारे साथ रहना है, आपकी क्या इच्छा है ?
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कुछ प्रेमयुक्त रोष से चौबे की पत्नी ने कहा इसकी तो आदत ही ऐसी हे। जो भला अपनी सगी माँ का न हुआ तो मेरा क्या होगा।
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और ठाकुर जी की आज्ञा जान अश्रुविमोचन करते हुए थमा दिया मदन मोहन जी को सनातनजी को।
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अब मदन मोहन को लेके ये बाबा जंगल में यमुना किनारे आये और सूर्यघाट के समीप एक सुरम्य टीले पे फूस की झोपडी बना के मदन मोहन को स्थापित कर पूजा करने लगे।
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सनातन जी घर घर से चुटकी चुटकी आटा मांग के लाते और उसी की बिना नमक की बाटिया बना के मदन मोहन को भोग लगाते।
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एक दिन मदन मोहन जी ने मुँह बिगाड़ के कहा ओ बाबा ये रोज रोज बिना नमक की बाटी हमारे गले से नीचे नहीं उतरती, थोड़ा नमक भी मांग के लाया करो ना।
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सनातन जी ने झुँझलाकर कहा - यह इल्लत मुझसे न लगाओ, खानी हो तो ऐसी ही खाओ वरना अपने घर का रास्ता पकड़ो ।
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मदन मोहन ने हस के कहा - एक कंकड़ी नमक के लिये कौन मना करेगा, और ये जिद करने लगे।
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दूसरे दिन ये आटे के साथ थोड़ा नमक भी मांग के लाने लगे।
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चटोरे मदन मोहन को तो माखन मिश्री की चट पड़ी थी,
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एक दिन बड़ी दीनता से बाबा से बोले- बाबा ये रूखे टिक्कड तो रोज रोज खावे ही न जाये, थोड़ा माखन या घी भी कही से लाया करो तो अच्छा रहेगा।
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अब तो सनातन जी मदन मोहन को खरी-खोटी सुनाने लगे, उन्होंने कहा - देखो जी मेरे पास तो यही सूखे टिक्कड है,
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तुम्हे घी और माखन मिश्री की चट थी तो कही धनी सेठ के वहां जाते, ये भिखारी के वहां क्या करने आये हो,
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तुम्हारे गले से उतरे चाहे न उतरे, में तो घी-बुरा माँगने बिल्कुल नही जाने वाला, थोड़े यमुना जी के जल के साथ सटक लिया करो ना। मिट्टी भी तो सटक लिया करते थे।
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बेचारे मदन मोहन जी अपना मुँह बनाए चुप हो गये, उस लंगोटि बन्ध साधु से और कह भी क्या सकते थे।
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दूसरे दिन सनातन जी ने देखा कोई बड़ा धनिक व्यापारी उनके समीप आ रहा हे,
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आते ही उसके सनातन जी को दण्डवत प्रणाम किया और करुण स्वर में कहने लगा -
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महात्मा जी मेरा जहाज बीच यमुना जी में अटक गया है, ऐसा आशीर्वाद दीजिये की वो निकल जाये,
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सनातन जी ने कहा भाई में कुछ नही जानता, इस झोपडी में जो बैठा है न उससे जाके कहो,
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व्यापारी ने झोपड़े में जा के मदन मोहन जी से प्रार्थना की, बस फिर क्या था इनकी कृपा से जहाज उसी समय निकल गया,
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उसी समय उस व्यापारी ने हजारो रूपए लगा के बड़ी उदारता के साथ मदन मोहन जी का वही भव्य मंदिर बनवा दिया, और भगवान की सेवा के लिए बहुत सारे सेवक, रसोइये और नोकर चाकर रखवा दिये।
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वह मंदिर वृंदावन में आज भी विध्यमान है...
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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