Tuesday, 5 December 2017

श्री हरिपाल जी

श्री भक्तमाल - श्री हरिपाल जी

श्री हरिपाल जी नामक एक भक्त थे उनका जन्म ब्राह्मण वंश में हुआ था । श्री हरिपाल जी गृहस्थ भक्त थे ।इन्होंने श्री द्वारिकाधीश भगवान् की उपासना में मग्न रहने वाले एक संत को अपने सद्गुरुदेव भगवान् के रूप में वरण किया था । श्री गुरुदेव जी महाराज श्री हरिपाल जी के घर में आया जाया करते थे । एक दिन श्री हरिपाल जी ने गुरुदेव जी से जिज्ञासा प्रकट की - भगवन ! इस संसार में , घर द्वार में हम फंसे पड़े है , घर गृहस्थी के जंजाल से मुक्त होकर भगवान् के चरणारविन्द को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है, यही रहते हुए भगवान् को प्राप्त करने का सबसे सरल उपाय कृपा कर के हमें बताये ।

श्री गुरुदेव भगवान् ने कहा - हम तुम्हे ऐसा सरल उपाय बताएँगे की एकदिन अवश्य भगवान् आकर तुमसे मिलेंगे। श्री गुरुदेव जी ने कहा - तुम साधु- संतो के चरणों में श्रद्धा रखकर उनकी खूब सेवा किया करो । तुम जीवन में एक नियम का निर्वाह कर लिया तो भगवत्प्राप्ति निश्चित है । सतत नाम जप करते हुए रोज किसी न किसी संत को श्रद्धा से भोजन कराया करो ,भगवान् संतो के पीछे पीछे चलते है । भगवान् अपने भक्तो के समीप छाया कितरह चलते है और गुप्त रूप से श्री सुदर्शन जी भक्तो किब्रक्षा करते रहते है । संतो को रिझा लोग तो भगवान् रीझ जाएंगे ।
हरिपाल जी ने कहा - गुरुदेव ! हम रोज संतो को कहा ढूंढने जाएंगे ? गुरुदेव जी ने कहा - चिंता नहीं करो , तुम्हारे द्वार पर भगवान् की कृपा से स्वयं संत आ जायेंगे । उस दिन से श्री हरिपाल जी संतो की सेवा  करने लगे , साधु संतो से उनका बडा प्रेम हो गया ।

पहले श्री हरिपाल जी के पास बहुत धन हुआ करता था । संतो की बहुत सेवा करते थे , जो भी संत उनके घर आते वह प्रसन्न होकर लौटते थे । सब संत भ्रमण करते हुए अन्य संतो को कहते थे - एकबार कभी हरिपाल जिनके घर भी जाकर देखो , कैसी निष्काम सेवा करते है , किस तरह से संतो के चरणों में श्रद्धा रखते है । अब तो बहुत से संत आने लगे , धीरे धीरे हरिपाल जी के घर संतो का आना जाना बढ़ गया । अब तो इतने संत आते की घर से बहार जाने तक का समय हरिपाल जी को नहीं मिलता । बहार जाना बंद हो गया अतः धन कमाने नहीं जा सकते थे ।
धीरे धीरे जितना भी धन था ,वह संतो की सेवा में लुटा दिया । जब घर में कुछ भी नहीं रहा, तब बाजार से कर्ज ले-लेकर कई हजार रुपयो की सामग्री साधुओ को खिला दिया । हरिपाल जी की संत सेवा के बारे में सर्वत्र चर्चा थी  अतः हर दुकान वाला उन्हें कर्ज दे देता था। लगभग हर दूकान से हरिपाल जी ने कर्ज ले लिया था परंतु जब कर्ज बहुत अधिक बढ़ गया तो कोई कर्ज देने स्वीकार नहीं कर रहा था । जब कर्ज मिलना बन्द हो गया, तब चोरी का सहारा लिया परंतु साधु संतो की सेवा करना बंद नहीं किया । हरिपाल जी बहुत बलवान थे । वे सोचते थे की यह भगवान् और संतो से विमुख लोग दान धर्म तो करते नहीं और न भजन करते है ।

भगवान् से विमुख लोगो का धन यदि चोरी करके संत सेवा करी जाए तो इन भगवत विमुखो का अन्न संतो के पेट में जायेगा , इस तरह से इन भगवत विमुख लोगो का भी कल्याण हो जायेगा और संतो की सेवा भी होगी । चोरी करते समय यह ध्यान मे रखते थे कि भगवान् से विमुख धनिक का धन ही ले । जो भक्त , वैष्णव , संत हो अथवा भक्त का कोई चिन्ह (तिलक ,कंठी ) दिखाई पड़े तो उस व्यक्ति का धन नहीं चोरी करते थे । संतो की सेवा थोड़ी देर के लिए स्त्री को सौंप कर बहार जाते थे और घूमकर यह देख लेते थे की किसके घर में भगवान् की सेवा नहीं होती ,कहा भजन नहीं होता । फिर रात में जाकर उसी घरपर चोरी करते थे ।
एक दिन बहार जाकर सोचने लगे - आज किसके घर में चोरी करनी चाहिए ? उन्हें एक वैश्य व्यापारी का घर दिखाई पड़ा । हरिपाल जी ने वहाँ जाकर देखा की यहां कोई कंठी ,तिलक धारण नहीं करता, घर में जप, कीर्तन नहीं होता । हरिपाल जी ने सोचा आज रात में इसी के घर चोरी करेंगे । रात्रि के समय हरिपाल जी उस व्यापारी के घाट में चुपचाप चले गए और चोरी करने लगे । जिस व्यापारी के घर में हरिपाल जी गये थी ,वो गुप्त रूप से भजन करता था । संतो में उसकी बहुत श्रद्धा थी ,वैष्णव वेष में उसकी श्रद्धा थी परंतु वह बहारी रूप से तिलक , कंठी धारण नहीं करता था । वह ये भी जानता था की हरिपाल जी  संतो की सेवा के निमित्त चोरी करते है परंतु कंजूस होने की वजह से कभी हरिपाल जी की सहायता नहीं कर पाया ।

हरिपाल जी रात में जब उसके घरपर चोरी कर रहे थे तभी थोडी आवाज हुई । व्यापारी की बेटी नींद से जागी और पिताजी को भी नींद से जगाया । व्यापारी की बेटी ने कहा - पिताजी ! लगता है घर में कोई चोर घुस गया है । हरिपाल जी एक जगह छिप गए । व्यापारी अपनी बेटी से कहने लगा - शांत ! आवाज न करना । यहाँ श्री हरिपाल जी के अलावा चोरी कौन करता है ? इस नगर में एक वही तो चोर है । हमारा परम सौभाग्य है की हरिपाल जी हमारे घर चोरी करने पधारे । कंजूसी के कारण हम उन्हें धन तो कभी दे नहीं पाये , परंतु अब हमारा भी धन संतो की सेवा में लगेगा । तुम जाकर शान्ति से सो जाओ नहीं तो संतो की सीया में विघ्न होगा । वह दोनों जाकर सो गए परंतु हरिपाल जी ने उनकी सब बातें सुन ली।

हरिपाल जी रोने लगे और पश्चाताप करने लगे की यह व्यापारी संतो में कैसा भाव रखता है , अब घर घर चोरी करना भी सही नहीं लगता ,पता नही कौन गुप्त भक्त हो और हमें अपराध लगे । मन में बहुत ग्लानि हुई और निश्चय किया की आजके बाद रात्रि के समय किसी के घर चोरी नहीं करूँगा । जिस चादर में चोरी का सामान ले जाते वह चादर भी हरिपाल जी उस व्यापारी के घर छोड़ आये । व्यापारी जान गया की यह चादर संत हरिपाल जी की है । प्रसाद रूप में उसने उस चादर को स्वीकार किया और मस्तक से लगा लिया । सतत नाम जप और संत सीया से हरिपाल जी सिद्ध महात्मा हो गए थे ,जैसे ही वह चादर व्यापारी ने अपने मस्तक से लगायी उसके शरीर में आनंद की एक लहार सी दौड़ गयी ।
पूर्व में वह संत और भगवान् में श्रद्धा रखता तो था परंतु प्रत्यक्ष सेवा कभी नहीं करता था । उसकी बुद्धि ऐसी निर्मल हो गयी की वह भी संतो की सेवा में लग गया । तब से चोरी छोडकर हरिपाल जी अभक्तों को पहचानकर लूटपाट करने लगे । एक भाला लेकर जंगल वाले रस्ते पर खड़े हो जाते । हरिपाल जी बड़े बलवान संत थे । वो मार्ग में देखते रहते की कौन रामकृष्ण आदि भगवान् के नाम नहीं लेता ,उसी को लूट लेते । एक दिन कुछ लोग उस रास्ते से जा रहे थे , हरिपाल जी ने उनके गले पर भाला रख दिया और कहा की जितना धन है सारा हमें दे दो ।

उनमे से एक व्यक्ति डर गया और उसके मुख से निकल गया - हे द्वारिकाधीश , हे विट्ठलेश , हे कृष्ण ! हरिपाल जी भगवान् का नाम सुनते ही पीछे हट गए और उन्हें छोड़ दिया । उन लोगो ने सब तरफ यह प्रचार कर दिया की जंगल के रास्ते से जाने वाले सभी भगवान् का नाम गाते हुए जाए , उन्हें हरिपाल जी से कोई ख़तरा नहीं होगा । अब उस रस्ते से जाने वाले सभी लोग सीताराम ,राधे श्याम ,कृष्ण कृष्ण गाते हुए चलते । अब हरिपाल जी की लूटपाट पूरी तरह बंद हो गयी थी । एक दिन द्वारपर बडी सी संत मण्डली आ पहुँची । अब संतो का सत्कार कैसे करें, अपनी स्त्री से यही बातचीत करने लगे । घरमें कुछ भी सामग्री न थी । ऐसे मे दोनों दम्पत्ति भगवान का स्मरण करने लगे ।

निष्किंचन भक्त श्रीहरिपाल जी को चिन्तित जानकर द्वारका मे श्री रुक्मिणी जी के महल मे विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण सोच में पड़ गये । उनकी साधु - सेवा की निष्ठा ने भगवान् का मन हर लिया था, अत: भगवान ने मूल्यवान्  वस्त्र -आभूषण धारण करके सेठका रूप बनाया और चलने लगें । श्री रुक्मिणी जी ने पूछा -प्रभो ! सेठ बनकर आज कहाँ जा रहे हो ? इतने सारे आभूषण तो पहन कर आप कही जाते नहीं । प्रभु बोले- हमारा एक प्रेमीभक्त है, उसीके पास जा रहा हूँ । रुक्मिणी जी सोचने लगी की ऐसा कौनसा भक्त है जिनके यहां इतने सज धज के जा रहे है । रुक्मिणी जी ने कहा -मैं भी साथ चलूँ क्या ? भगवान् ने कहा -आओ चले परंतु श्रृंगार में कोई कमी न करना । सारे सुंदर आभूषण आप धारण करो और हमारे साथ चलो ।

भगवान् ने रुक्मिणी जी से कहा की हम ऐसे भक्त के यहां जा रहे है वहाँ कोई भगवत चर्चा न होने पाये , केवल व्यापार ,वस्त्र ,आभूषणों के बारे में ही बात करना । रुक्मिणी जी सोचने लगी की ऐसा कौन भक्त है जो भगवान् की चर्चा से चिढ़ता हो ? दोनो सेठ और सेठानी श्रीहरिपाल भक्त के द्वारपर आये और पूछने पर श्री हरिपाल जी से कहने लगे-अजी ! मैं अमुक गाँव जा रहा हूँ ,मार्ग मे अकेले जानेपर अनेक संकट हैं, यदि हमे कोई पहुंचा दे, तो हम उसे मजदूरी के रुपये दे देंगे । भक्त हरिपाल जी ने कहा कि संत लोग द्वारपर रुके हुए है , मजदूरी के रुपये पहले दे दो । सेठ ने रुपये दे दिये । उन रुपयों को लेकर आपने अपनी स्त्री को देकर कहा कि इन रुपयो से सन्तो को बालभोग कराओ, मैं इन्हें पहुँचाकर अभी आता हूँ । जंगल में जाकर सेठ केे पास बहुत-सा धन देखकर श्रीहरिपाल जी मन-ही-मन अति प्रसन्न हुए ।

श्री हरिपाल जी ने ध्यान देकर देखा कि उनके गले में माला और मस्तक में तिलक नहीं हैं, ये वैष्णवो का -सा आचार, नाम- उच्चारण आदि भी नही कर रहे हैं, इनके शरीरोंपर अति मूल्यवान इतने आभूषण हैं तो घर में सोना - चाँदी ,जवाहरात के भण्डार भरे होंगे , ऐसे में यदि मै यह सब छीन भी लू तो कोई विशेष हानि नहीं होगी । सेठ सेठानी भी केवल घर व्यापार की बाते ही करते रहे । एक स्थान पर रूककर श्री हरिपाल जी दोनो से बोले - तुम्हारे पास जितना सामान है सब साधु संतो के निमित्त न्यौछावर अपने शरीर से उतारकर डाल दो, नहीं तो पिटोगे । उन दोनो ने सब कुछ उतारकर डाल दिया ।

श्री रुक्मिणी जी अंगुली में एक छल्ला था, वह उनसे नहीं निकला । तब श्री हरिपाल जी अंगुली मरोडकर उसे निकालने लगे । तब वे बोली -अरे ! तू तो बडा ही कठोर है, मेरी अँगुली टूट जायेगी । इस छल्ले को छोड़ दे । भक्तजी ने कहा -छोड़ कैसे दूँ? इससे तो कई सन्तो का भोजन होगा । इस साधु सेवा निष्ठा की बात सुनकर भगवान् ने  सेठरूप को त्याग दिया और श्यामसुन्दर अनूपरूप धारणकर अपने भक्त को दिखाया ।हरिपाल जी के गुरुदेव की वाणी सत्य हो गयी । मेरे प्यारे हो, भक्तों में श्रेष्ठ हो - ऐसा कहते हुए भगवान् ने हरिपाल जी को छाती से लगा लिया ।
जब कोई भक्त जीवन में कोई नियम लेता है तो उस नियम के दृढ़ता की परीक्षा अवश्य होती है और यदि वह उस नियम का किसी भी परिस्थिति में त्याग नहीं करता तो भगवान् की प्राप्ति सहज हो जाती है । गुरुदेव जी के द्वारा दिया हुआ नियम हरिपाल जी ने कभी नहीं छोड़ा , कैसा भी दुःख आया परंतु संतो की सेवा करते रहे । बाद में भगवान् ने हरिपाल जी की संत सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें अपार धन दिया ।

Thursday, 10 August 2017

नरहरि सुनार कथा

(((((( नरहरि सुनार की करधनी ))))))

    हरिहर की कथा
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नरहरि सुनार रहते तो पंढरपुर में थे, किंतु इनका हृदय काशी के भोले बाबा ने चुरा लिया था।
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शिव की भक्ति में ये इतने मगन रहते थे कि पंढरपुर में रहकर भी विट्ठल भगवान् को न तो इन्होंने कभी देखा और न ही देखने को उत्सुक थे।
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नरहरि सुनारी का काम करते थे। इस लिए जब सोने के आभूषण बनाते, तो उस समय भी शिव, शिव, शिव, शिव का नाम सतत इनके होंठों पर रहता। इस लिए इनके बनाए आभूषणों में भी दिव्य सौंदर्य झलकने लगता था।
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पंढरपुर में ही रहता था एक साहूकार, जो कि विट्ठल भगवान् का भक्त था। उसके कोई पुत्र न था। उसने एक बार विट्ठल भगवान् से मनौती की कि यदि उसे पुत्र हुआ, तो वह विट्ठल भगवान् को सोने की करधनी (कमरबंद या कमर पट्टा) पहनाएगा।
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विट्ठल भगवान् की कृपा से उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। वह खुशी से फूला न समाया और भागा-भागा नरहरि सुनार के पास सोना लेकर पहुँचा और बोला,
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नरहरि जी ! विट्ठल भगवान् ने प्रसन्न होकर मुझे पुत्र प्रदान किया है। अतः मनौती के अनुसार आज मैं विट्ठल भगवान् को रत्नजड़ित सोने की करधनी पहनाना चाहता हूँ।
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पंढरपुर में आपके अलावा इस प्रकार की करधनी और कोई नहीं गढ़ सकता। इस लिए आप यह सोना ले लीजिए और पांडुरंग मंदिर में चलकर विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले आइए और जल्दी से करधनी तैयार कर दीजिए।
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विट्ठल भगवान् का नाम सुनकर नरहरि जी बोले, "भैया ! मैं शिवजी के अलावा किसी अन्य देवता के मंदिर में प्रवेश नहीं करता। इसलिए आप किसी दूसरे सुनार से करधनी तैयार करा लें।
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लेकिन साहूकार बोला, नरहरि जी ! आपके जैसा श्रेष्ठ सुनार तो पंढरपुर में और कोई नहीं है, इसलिए मैं करधनी तो आपसे ही बनवाऊँगा। यदि आप मंदिर नहीं जाना चाहते हैं, तो ठीक है। मैं स्वयं विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ला देता हूँ। नरहरि जी ने मजबूरी में इसे स्वीकार कर लिया।
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साहूकार विट्ठल भगवान् की कमर का नाप लेकर आ गया और नरहरि जी ने उस नाप की रत्नजड़ित सोने की करधनी बना दी।
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साहूकार आनंद पूर्वक उस करधनी को लेकर अपने आराध्य देव विट्ठल भगवान् को पहनाने मंदिर गया। जब पुजारी जी वह करधनी विट्ठल भगवान् को पहनाने लगे, तो वह करधनी कमर से चार अंगुल बड़ी हो गई।
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साहूकार करधनी लेकर वापिस नरहरि जी के पास लौटा और उस करधनी को छोटा करवा लिया। जब वह पुनः करधनी लेकर मंदिर पहुँचा और पुजारी ने वह करधनी विट्ठल भगवान् को पहनानी चाही, तो अबकी बार वह चार अंगुल छोटी निकली।
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नरहरि जी ने करधनी फिर बड़ी की, तो वह चार अंगुल बढ़ गई। फिर छोटी की, तो वह चार अंगुल कम हो गई। ऐसा चार बार हुआ। पुजारी जी व अन्य श्रद्धालुओं ने साहूकार को सलाह दी कि नरहरि जी स्वयं ही विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले लें।
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साहूकार के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर नरहरि जी बड़ी मुश्किल से विट्ठल भगवान् के मंदिर में जाकर स्वयं नाप लेने को तैयार हुए।
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किंतु कहीं उन्हें विट्ठल भगवान् के दर्शन न हो जाएँ, यह सोचकर उन्होंने साहूकार के सामने यह शर्त रखी कि मंदिर में घुसने से पहले मैं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लूँगा और हाथों से टटोल कर ही आपके विट्ठल भगवान् की कमर की नाप ले सकूँगा।
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साहूकार ने नरहरि जी की यह शर्त मान ली। अनेक शिवालयों से घिरे पांडुरंग मंदिर की ओर कदम बढ़ाने से पहले नरहरि जी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। साहूकार इन्हें मंदिर के अंदर ले आया और विट्ठल भगवान् के सामने खड़ा कर दिया।
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जब नरहरिजी ने नाप लेने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाए और मूर्ति को टटोलना शुरू किया, तो उन्हें लगा कि वे पाँच मुख, दस हाथ वाले, साँपों के आभूषण पहने हुए, मस्तक पर जटा और उसमें से प्रवाहित हो रही गंगा वाले शंकर भगवान् की मूर्ति का स्पर्श कर रहे हैं।
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नरहरि जी ने सोचा, 'कहीं साहूकार मुझ से ठिठोली करने के लिए विट्ठल भगवान् के मंदिर की जगह किसी शिवालय में तो नहीं ले आए हैं। यह सोचकर ये अपने आराध्य देव के दर्शन के लोभ से बच नहीं पाए और प्रसन्न होकर इन्होंने अपनी आँखों से पट्टी खोल दी।
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किंतु आँखें खोलकर देखा तो ठगे से रह गए। देखा सामने उनके आराध्य शिव भगवान् नहीं विट्ठल ही खड़े हैं। झट इन्होंने फिर से अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी और पुनः नाप लेने लगे।
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लेकिन जैसे ही इन्होंने पुनः मूर्ति के दोनों ओर अपने हाथ ले जाकर कमर की नाप लेने का प्रयास किया, तो इन्हें पुन: ऐसा आभास हुआ कि मानो ये अपने इष्टदेव बाघाम्बर धारी भगवान् शिवजी का ही आलिंगन कर रहे हों।
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जैसे ही आँखों से पट्टी खोलकर देखा, तो पुनः विट्ठल भगवान् की मुस्कराती हुई छवि दिखलाई पड़ी। हड़बड़ाते हुए इन्होंने तुरंत अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली और फिर से मूर्ति की कमर का नाप लेने लगे। लेकिन आँखें बंद करने पर पुनः मूर्ति में शंकर भगवान् का आभास हुआ।
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जब ऐसा तीन बार हुआ, तो नरहरि जी असमंजस में पड़ गए। इन्हें समझ में आ गया कि शिव और विट्ठल भगवान् अलग-अलग नहीं हैं। जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल (विष्णु) हैं, वे ही शंकर हैं।
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अब तो इन्होंने झट अपनी आँखों पर बँधी अज्ञान की पट्टी उतारकर फेंकी और क्षमा माँगते हुए विट्ठल भगवान् के चरणों में गिर पड़े और सुबक-सुबककर रोते हुए कहने लगे,
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हे विश्व के जीवनदाता ! मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैं शिवजी में और आपमें अंतर करता था। इसीलिए मुझ नराधम ने आज तक आपके दर्शन तक न किए। आज आपने मेरे मन का अज्ञान और अंधकार दूर कर दिया। कृपया अपने इस अपराधी को क्षमा कर दीजिए।
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नरहरि जी की इस सरलता पर विट्ठल भगवान् रीझ गए और उन्होंने प्रसन्न होकर नरहरि के इष्टदेव शिवजी को सम्मान देते हुए अपने शीश पर शिवलिंग धारण कर लिया। विट्ठल भगवान् को सिर पर शिवलिंग धारण किए देखकर नरहरि जी और भी अधिक रोमांचित हो गए और अश्रुपात करते हुए गद्गद स्वर से उनकी स्तुति करने लगे।
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अब की बार नरहरि जी ने विट्ठल भगवान् की कमर की नाप लेकर प्रेम पूर्ण हृदय से जो करधनी बनाई, वह उनकी कमर में बिल्कुल ठीक बैठी। विट्ठल भगवान् को रत्नजड़ित करधनी पहने देख नरहरि जी और साहूकार भाव-विभोर हो उठे।
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अब नरहरि जी विट्ठल भगवान् को अपने इष्ट देव शिव भगवान् का ही रूप मानने लगे थे, अतः ये विट्ठल-भक्तों के वारकरी मंडल में शामिल हो गए। ये विट्ठल, विट्ठल, विट्ठल, विट्ठल का भगवन्नाम संकीर्तन करते हुए मस्ती में नृत्य करते।
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आज भी अपने सिर पर शिवलिंग धारण किए पंढरपुर के विट्ठल भगवान् के दर्शन कर भक्तजनों को नरहरि सुनार की इस कथा की बरबस याद आ जाती है ।

Friday, 4 August 2017

रूप गोस्वामी पाद 1

श्रील रूप गोस्वामी पाद जी आज तिरोभाव दिवस है

1⃣श्रील रूप गोस्वामी पाद
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श्रील रूप गोस्वामी जी  श्री रूप मंजरी जी के अवतार है। इनका सेवित विग्रह श्री राधा गोविन्द देव जी है ।जो वर्तमान में जयपुर में सेवित है।

🙏🏼इनकी समाधी श्री राधा दामोदर मंदिर में है ये भक्ति के सर्बोत्तम आचार्य है।

🏕इनकी भजन कुटीर वृन्दावन में हैं और टेर क़दम नन्दगाँव में है।

📚श्रील रूप गोस्वामी जी द्वारा लिखे दिव्य ग्रन्थ-

श्रील रूप गोस्वामी के ग्रंथ तो अथाह सागर है ।
एक ग्रंथ नहीं जगत के जितने भी युगल प्रेम रस
विशुद्ध प्रेम की बात बताते है वो सब श्रील रूप जी के ग्रंथो के अंश है।

📙इनके प्रमुख ग्रंथ है
" श्री उज्जवल नीलमणि" - इसमें सखीयो मंजरीयो सहित युगल प्रेम का रहस्य है।
जैसे भाव ,स्वभाव ,यूथ, श्री युगल गुण ,यह सब इस ग्रंथ में इन्होंने वर्णित किया।
यह बडी ही उत्तम कृति है श्री रूप की।

📕" श्री भक्ति रसमृत सिंधु" - उसमें श्री कृष्ण का चौंसठ गुण, भक्ति भाव आदि बताए गए है

📒इसके अलावा ,
श्री दानकेलीचिंतामणि, दान केली कोमदी, श्री निकुंज रहस्य, श्री मंजरी स्वरूप निरूपण, श्री सत्वमाला, उपदेशमृतसिंधु, ललित माधव, विदग्ध माधव , श्री राधा कृष्ण गनोउपदेश दीपिका।

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श्रील रूप गोस्वामी के जीवन का संक्षिप्त परिचय -

🌅श्री रूप गोस्वामी जी जन्म 1489 में हुआ

📿 इनके दीक्षा गुरु श्री मान  विद्या वाचस्पति मदोदय है

🛐 श्री चैतन्य महाप्रभु जी इनकी प्रथम भेंट 1514 में रामकली ग्राम हुई तब उनकी आयु 25 बर्ष थी।

🏞प्रयाग में श्री मन चैतन्य महाप्रभु जी उनको दिव्य प्रेम भक्ति की शिक्षा दी at the age 27

⏩ श्रील रूप गोस्वामी पाद वृन्दावन आये at the age 28।

🙏🏼श्री गोविन्द देव जी विग्रह प्रकट किया गोमा टीला वृन्दावन में माघ शुक्ल पंचमी को at the age of 46 in year 1557

📕श्री भक्ति रसामृत सिंधु पुस्तक पूर्ण की  1567 at the age of 56।

🌈अप्रकट श्रावण शुक्ल द्वादसी 1564   ,27 day after disappearence of श्रील सनातन गोस्वामी जी at श्री राधा दामोदर मंदिर in वृन्दावन At the age of 75।

🏵 श्रील रूप गोस्वामी पाद 22 साल गृहस्थ में और 53 साल वृज में रहे। 🙏 🙏 🙏 🙏 🙏 🙏

*रूप गोस्वामी की ‘चाटु पुष्पाञ्जलि’ के इस श्लोक से यह कितना स्पष्ट है-*

“करुणां महुरर्थयेपरं तव वृन्दावन चक्रवर्त्तिनी।

अपिकेशिरिपोर्यया भवेत्स चाटु प्रार्थनभाजनं॥*

-हे वृन्दावन चक्रवर्तिनि! ‘मैं बार-बार तुम्हारी ऐसी कृपा की प्रार्थना करता हूँ, जिससे मैं तुम्हारी प्रिय सखी बनूं। तुम जब मानिनी हो तो कृष्ण तुम से मिलने के लिए मेरी चाटुकारी करें और मैं उनका हाथ पकड़कर उन्हें तुम्हारे पास ले आऊँ।

*श्री रूप गोस्वामी पाद की  अभिलाषा*

रूप गोस्वामी ने ' *कार्पण्य पञ्जिका' स्त्रोत* में अभिलाषा व्यक्त की है कि *जब राधा-कृष्ण विरह-व्यग्र हो वृन्दावन में परस्पर अन्वेषण करते हों, उस समय वे मञ्जरी रूप से उनका मिलन करा, उनसे हार पदकादि पारितोषिक रूप में प्राप्त कर धन्य हों, वे विलास के समय उनके निकट रहकर उनकी विभिन्न प्रकार से सेवा करें, ताम्बूल सजाकर अपने हाथ से उनके मुख में अर्पित करें, अनुंग-क्रीड़ा में उनके केश विखर जाने पर उन्हें संवार दे, उनकी वेश-भूषा फिर से कर दें और उनके तिलक शून्य ललाट पर फिर से तिलक-रचना कर दें।*

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' *उत्कलिकावल्लरी'* में उन्होंने अभिलाषा व्यक्त की है कि

*वे अपने केश-पाश खोलकर, राधा के दोनों चरणों को पोंछ देने का सौभाग्य प्राप्त कर सकें।, निकुञ्ज में विलास के उपयोगी पुष्प शय्या तैयार कर सकें, विलास के समय दोनों को मधुपान करा सकें और विलास के पश्चात उनका श्रम दूर करने के लिये चामर से बीजन कर सकें*,।

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' *श्रीगान्धर्व्वासं प्रार्थनाष्टकं*' नामक स्तव में उन्होंने अभिलाषा व्यक्ति की है कि

*जब निकुञ्ज में नानाविध पुष्प रचित शय्या पर शयन करते हुए राधा-कृष्ण मधुर नर्म विलास करते हों, तो वे दोनों की चरण-सेवा करें।*

जय हो🌹🌹🌹🙏

श्री राधा चरण रेणू

¸.•*""*•.¸
Զเधे Զเधे ....... शेरु मुजंiल
                                 
( Shreeji Gau Sewa Samiti )

ललितकिशोरी और नथुनीबाबा.

ललितकिशोरी और नथुनीबाबा........

भक्तों में एक 'सखी सम्प्रदाय' प्रचलित है, इसमें अपने को भगवान की आज्ञाकारिणी सखी मानकर और भगवान श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम सखा समझकर उपासना की जाती है।

इस सम्प्रदाय का विश्वास है कि सखी भाव से उपासना किये बिना किसी को निकुंज सेवा का अधिकार नहीं प्राप्त होता।

भक्त प्रवर साह जी और नथुनीबाबा, ये दोनों 'सखी सम्प्रदाय' में सर्वमान्य भक्त हैं।

साह जी वृन्दावन में ललितनिकुंज के भीतर रहते थे और ‘ललितकिशोरी’ नाम से प्रसिद्ध थे।

नथुनीबाबा ब्राह्मण कुल भूषण थे, परम रसिक, नि:स्पृह, सदा प्रसन्न और भगवान की रूपरसमाधुरी में नित्य छके रहने वाले थे।

वृन्दावन में नथुनीबाबा सखी भाव से रहते थे,

भगवत्संगी ही इनको प्रिय थे और भगवान राधारमण ही परमाराध्य देव थे।

नथुनीबाबा सदा नथ धारण करते थे, इसी से ‘नथुनीबाबा’ के नाम से इनकी प्रसिद्धि हो गयी थी।

साह जी-नथुनीबाबा की भेंट:-

वृन्दावन में एक प्राचीन मन्दिर के कुंज में ही नथुनीबाबा का सदा निवास था।

छ: महीने बीतने पर एक बार कुंज का द्वार खुलता था,
उस समय वृन्दावन के सभी भक्त महात्मा सखी जी का दर्शन करने जाते और उनके मुखारविन्द से सुधास्वादोपम माधुर्य रस की कथा सुनकर कृतकृत्य होते थे।

यही तो सत्संग की महिमा है, जिससे भगवान की रसभरी कथा सुनने को प्राप्त होती है।

एक बार नियमित समय पर नथुनीबाबा के कुंज का द्वार खुला,
सभी संत-महात्मा सखी जी के दर्शनार्थ पधारे, भक्तों के हृदय में प्रेमप्रवाह बह चला।

साह जी भी श्रीराधारमण के प्रसाद का पेड़ा लेकर वहां पधारे और सखी जी को प्रणाम करके बैठ गये।

साह जी और नथुनीबाबा, इन दोनों भक्तों के समागम से भक्त-मण्डली बहुत ही सन्तुष्ट हुई, सभी चुप हो गये।

ये दोनों ही महात्मा रागानुराग भक्ति में सदा ही निमग्न रहते थे।

साह जी को देखकर नथुनीबाबा नेत्रों से प्रेमाश्रु बहाते हुए गद्गद वाणी में बोले:- "दारी आयी हैं क्या,
जीवन सफल करने में कोई पास न रखना।"
यह सुनकर साह जी भी प्रेमप्रवाह में बहते हुए बोले:- "हां जी, आपके पास आयी हूँ,

अभिलाषा पूरी कीजियो"
कोई दिलवर की डगर बताय दे रे...😭

लोचन कंज कुटिल भृकुटी कच कानन कथा सुनाय दे रे॥
ललितकिसोरी मेरी वाकी चित की सांट मिलाय दे रे।

जाके रंग रंग्यौ सब तन मन, ताकी झलक दिखाय दे रे॥

यह गीत गाकर साह जी पुन: बोले:- "कभी ललित कुंज में पधारौ।"

बाबा बोले:- "यदि गोडा छोड़ै तो।"

तात्पर्य यह कि प्रियतम का आलिंगन सदा होता रहता है, फिर बाहर कैसे जाया जाये।

बस, इतना सुनकर साह जी गद्गद हो गये और पुन: प्रणाम करके लौट आये।

ऐसे-ऐसे महात्मा अब भी वृन्दावन में विराजते हैं, जिन पर भगवान की कृपा होती है, वे ही यह रस लूटते हैं।

जय श्री राधे ....😭😭