Tuesday, 16 May 2017

भक्त नरहरि देव जु

भक्त नरहरिदेव जी

बुंदेलखंड में गूड़ों नाम का एक ग्राम था। इसी गांव’ में विष्णुदास और उत्तमा देवी नाम के दम्पती रहते थे। साधारण जीवन जीते हुए दम्पती भगवान का भजन भी करते और साधु सेवा भी करते।

विक्रम सवत् 1640 (सन् 1583) में उत्तमा देवी के गर्भ से एक दिव्य बालक ने जन्म लिया। बालक का रूप-स्वरूप अत्यत आकर्षक और मनमोहक था। जैसे-जैसे यह बालक बड़ा होता गया इसका व्यक्तित्व आकर्षक होता गया। माता-पिता ने बालक का नाम नरहरि रखा।

बाल्यावस्था से भक्ति और धर्म के प्रति नरहरि के हृदय में आस्था थी। अपने हम उम्र बालकों में नरहरि सबसे विलक्षण था। उसकी बौद्धिक क्षमता और विश्लेषण क्रिया के समक्ष अच्छे-अच्छे विद्वान भी आश्चर्यचकित हो उठते।

जिस प्रकार सुगंध दूर-दूर जाकर भ्रमर को पुष्प का पता बताती है उसी प्रकार सत्पुरुष की ख्याति दूर तक जाती है। नरहरि के भक्तिभाव और ज्ञान से सब उसका सम्मान करते थे।

उसी समय पास के किसी गाव में एक धन धान्य से समृद्ध वैश्य कुष्ठ रोग से पीड़ित था। उसके पास सब कुछ होते हुए भी लोग उसके पास बैठने से कतराते थे।

उसका रोग लोगों में उसके प्रति घृणा का कारण बन गया था। जब किसी भी उपचार से उसे कोई लाभ न हुआ तो उसने ईश्वर का साथ पकड़ा।

”हे कृपानिधान मैंने किस जन्म में कौन अपराध किया है जिसका मुझे यह दंड मिला है।” उसने रोज प्रभु से विनती की: “मेरे पास सब कुछ है पर निरोगी काया न होने से मैं उपेक्षा का पात्र हूं। यदि मैंने कोई पूर्वजन्म में अपराध किया है तो मुझे क्षमा करें करुणा सागर।”

उसी रात उसकी सच्चे मन की प्रार्थना स्वीकार हो गई। ”तेरी सच्ची पुकार मैंने सुन ली है।” भगवान ने स्वप्न में कहा: ”पूर्वजन्म में किए पापकर्मों से तुझे यह दंड मिला था। यदि तू अब भी धर्मपथ पर चलने का वादा करे तो मैं तुझे इस रोग से मुक्ति पाने का मार्ग बता सकता हूं ।”

”भगवन्, मैं संकल्प करता हूं कि स्वयं को आपको समर्पित कर दूंगा।”

”तो ठीक है। यहां से कुछ दूरी पर गूड़ो गांव में मेरा परमभक्त नरहरि रहता है। उसके पास जा उसके चरणामृत पीने से तेरे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।” वैश्य ने उसी क्षण सकल्प किया कि वह अपना शेष जीवन प्रभु की भक्ति में बिताएगा।

भोर होते ही वह गूड़ों गांव की ओर चल दिया। लोग उसे देखकर घृणा से मुंह फेर लेते थे और मार्ग छोड़कर एक तरफ हट जाते थे।

”भाई मुझे सिद्धपुरुष नरहरि के दर्शन करने हैं।” वैश्य ने एक व्यक्ति से याचनापूर्ण स्वर में पूछा: कृपा करके मुझे उनका निवास बताओ।

”सिद्धपुरुष..! और नरहरि ! हमारे गांव में तो एक भक्त नरहरि है।” व्यक्ति ने कहा।

”मुझे उन्हीं के पास जाना है। मुझे भगवान ने स्वप्न में बताया है कि मेरा यह कुष्ठ रोग उन्हीं सिद्धपुरुष के चरणामृत-पान करने से ठीक होगा।”

वह व्यक्ति हंस पड़ा और अन्य लोगों को भी यह बात बताई। सभी वैश्य को मूर्ख कहकर हंसी का पात्र बनाने लगे।

”चल भाई कोढ़ी ! हम भी देखें कि नरहरि कब से सिद्ध पुरुष हो गया।” वैश्य को नरहरि के पास लाया गया।

नरहरि ने भी उसकी बात सुनी और उसकी आखों में सत्य का आभास किया । वैश्य ने बड़ी श्रद्धा सै नरहरि के चरण धोए और चरणामृत पिया।

यह आस्था थी या कि चमत्कार ! उसी क्षण वह निरोगी हो गया। कुष्ठ मिट गया। वहां उपस्थित सभी ग्रामवासियों ने ‘नरहरिदैव की जय’ का घोष किया।

उसी दिन से नरहरि में लोगों की श्रद्धा और आस्था बढ़ गई धीरे-धीरे नरहरि की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी।

नरहरिदेव ने नित्य नियम बना लिया कि वह भगवान की लीलाओं पर पद रचते और भाव विभोर होकर गाते। भक्ति और भजन ही उनकी दिनचर्या वन गए थे।

वृंदावन की मनमोहिनी महिमा ने उन्हें मोह लिया था। वह ब्रज चल दिए। जब यमुना के किनारे पहुंचे तो श्याम जल की लहराती जलराशि देखकर आनंदित हो उठे पाप हारिणी यमुना के तट की माटी मस्तक पर धारण की।

कैसी लुभावनी छटा थी वृदावन की ! दूर-दूर तक कृष्ण-कन्हैया की यश पताकाओं की शृंखला थी। मंदिरों पर लहराती पताकाएं कृष्णभक्ति में डूबी नाच रही लगती थीं।

अब तो नरहरि के हृदय में भगवान के दर्शनों की इच्छा और व्याकुलता थी। वृंदावन की पवित्र भूमि का रज-रज कण-कण भगवान कृष्ण की भक्ति के गीत गा रहा था।

नरहरि का मन भी प्रेम से भर उठा। वह भी गाने लगे। वे तन की सुधि-बुधि भूल गए। कृष्ण के नाम में तो ऐसा ही रस और भाव है। जिसके हृदय में कृष्ण की नाम धुन ने स्थान कर लिया वह लोक लाज बिसराकर उन्मुक्त हो जाता है।

यही तो प्रेम दीवानी मीरा के साथ हुआ। युद्धों की भूमि पर जन्मी मीराबाई ने कृष्ण-प्रेम का ऐसा अनूठा उदाहरण दिया कि मीरा का नाम युगों-युगों तक चिरस्मरणीय बना रहेगा।

नरहरि को भी जब वृंदावन की माटी से कृष्ण नाम की धुन सुनाई पड़ी तो वह भी दीवाने हो गए और अपना हृदय उस पवित्र भूमि और कृष्ण नाम को समर्पित कर दिया।

ऐसी लगन लगी कि हर श्वास में कृष्ण ने वास कर लिया और जब कोई भक्त भगवान में लीन हो जाता तो भगवान भी अपने भक्त के दर्शन के लिए आतुर हो उठते हैं।

नरहरिदेव सब कुछ भूल कर पद गा रहे थे। कृष्ण की प्रीति ने कंठ अवरुद्ध कर दिया और वह मूर्च्छित होकर गिर पड़े।

तत्काल एक वृद्धा ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया। कुछ समय बाद उन्हें चेत हुआ। वृद्धा के अधरों पर निश्छल मुस्कान थी।

”भक्त तुम्हारी कृष्ण प्रीति सच्ची है। प्रीति को ज्ञान से सींचो और कृष्णमय हो जाओ। जाओ वृंदावन में परम विद्वान महात्मा सरसदेव जी तुम्हें तुम्हारे इष्ट से मिला देंगे। वृद्धा ने कहा। नरहरि को लगा जैसे कोई बलात उन्हें ले जा रहा था।

वह क्षण-भर में महात्मा सरसदेव के समक्ष थे। नरहरिदेव को देखकर महात्मा जी मुस्कराए। ”आ गए नरहरिदेव ! मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रहा था।”

सरसदेव जी ने कहा : ”आओ तुम्हारी प्रीति को ज्ञान के जल से सींच दूं।” नरहरि गुरु के चरणों में गिर पड़े।

तब गुरुदेव ने उन्हें राधा-कृष्ण की रास-माधुरी का ज्ञान देना आरम्भ किया। गुरु की वाणी में ज्ञान का तो शिष्य के श्रवण में प्रीति थी और पैंतीस वर्ष की आयु में ही नरहरिदेव गुरुकृपा और कृष्ण की दया से उच्चकोटि के रसोपासक संतों में गिने जाने लगे।

उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति और गुरुभक्ति ने महात्मा सरसदेव को भी आनंदित कर दिया था। अपना सम्पूर्ण जीवन प्रेम के पर्याय ब्रज के ठाकुर रासबिहारी श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित करके श्री नरहरिदेव जी ने विक्रम संवत् 1741 (सन् 1684) में निकुंज लीला में वास किया।

जय श्री राधे

No comments:

Post a Comment