Tuesday, 6 December 2016

मुझको छोड़ो मनमीत नही , पंकिल

मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।
याचक निराश हो लौट जाय यह सच्चे प्रभु की रीति नहीं।
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।

स्वार्थी जगत या और देव पात्रता देख अपनाते हैं।
पर आप अनोखे नाथ कुपात्रों को भी गले लगाते हैं।
आपसी पिता-माता का नात है बालू की भीत नहीं।
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।1।।

क्या विरद विसार दिया अपना दर्शन साकार नहीं दोगे?
भवसागर में डूबता मुझे क्या कर-आधार नहीं दोगे?
होशा जासी में ही दुर्लभ नर-जीवन जाये बीत नहीं-
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।2।।

ऐसे कुठाँव में फॅंसा, फिसलते निर्बल पाँव लगी काई।
घर का न घाट का श्वान, इधर पानी का कुआँ, उधर खाई।
मेरे दुर्दशा-लड़ाई क्यों लेते, करूणा से जीत नहीं-
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।3।।

कर पकड़ो परमेश्वर देखो, कितनी सह रहा तबाही मैं।
मत बूँद-बूँद के हित तरसाकर मारो मरू का राही मैं।
सब पड़ा अधूरा क्यों कर देते, पूरा मेरा गीत नहीं-
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।4।।

तेरी दयालुता है अगाध, मेरे अपराध डुबा दो तुम।
नीरस ‘पंकिल’ जीवन में निज, सुधि का मधुमास खिला दो तुम
लीला-गायन के सिवा और भायें कोई संगीत नहीं-
मुझको छोड़ो मनमीत नहीं।।5।।

Wednesday, 16 November 2016

हरिराम व्यास जु

राधे राधे
🌷🌷आज की "ब्रज रस धारा"🌷🌷
दिनांक 16/11/2016

'हरीराम व्यास'जी जिन्होंने राजा को दिव्य वृंदावन के स्वरुप का दर्शन कराया.व्यास जी ओरछा नरेश 'मधुकरशाह' के 'राजगुरु' थे. और'गौड़ संप्रदाय'के वैष्णव थे.ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे और सदा शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार रहतेएक बार जब ये वृंदावन आये और गोस्वामी हितहरिवंश जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा. गोसाईं जी ने नम्र भाव से यह पद कहा -यह जो एक मन बहुत ठौर करि कहि कौनै सचु पायो।जहँ तहँ बिपति जार जुवती ज्यों प्रगट पिंगला गायोयह पद सुनकर व्यास जी चेत गए और हितहरिवंश जी के अनन्य भक्त हो गए.और हितहरिवंश जी के शिष्य होकर राधावल्लभी हो गए.और मन में ठान लिया कि वृंदावन छोड़कर अन्यत्र कही भी कदम तक नहीं रखेगे.वृन्दावन में जिस प्रकार'निधिवनराज'स्वामी श्रीहरिदासजी की साधना स्थली है, श्रीहित हरिवंश महाप्रभुजी की'सेवाकुंज'साधना स्थली है, उसी प्रकार बनखण्डी से लोई बाजार जाते हुए सेवाकुंज के दक्षिण भाग से लगा‘किशोरवन’रसिक संत श्रीहरिरामव्यासजी की साधनास्थली है.हरि हम कब हवै हैं ब्रजवासीय।ठाकुर नन्दकिशोर हमारे, ठकुराइन राधा सी।कब मिलि हैं वे सखी सहैली, हरिवंशी हरिदासी।।वंशीवट की शीतल छैंया, सुभग नदी यमुना सी।इतनी आस व्यास की पुजवौ, वृन्दा विपिन विलासी।।जब ओरछा नरेश मधुकर शाह इन्हें लेने आये, तो इन्होने मना कर दिया.कि हम वृंदावन छोड़कर अन्यत्र नहीं जायेगे.तब उन्होंने प्रश्न किया -गुरुदेव! ऐसी कौन-सी विशेषता है वृंदावन में? ये मै मानता हूँ कि ये धाम है, पर भजन तो कही भी रहकर किया जा सकता है ना ? आप चलिए आपके भजन में कोई व्यवधान नहीं डालेगा.तब हरिराम व्यास जी ने उत्तर दिया -श्री धाम वृंदावन कारसमय स्वरुप यहाँ प्रकट है.इसलिए मै एक कदम भी बाहर नहीं निकाल सकता.राजा बोले -गुरुदेव !यदि कृपा हो जाए तो दास को भी उस चिन्मय,रसमय दिव्य स्वरुप के दर्शन करा दीजिये.तब व्यास जी ने राजा के सिर पर हाथ रखा, और फिर नरेश की तो मानो द्रष्टि ही बदल गई, दिव्य वृंदावन के साक्षात् दर्शन होने लगे, यही नहीं नित्य बिहार करते श्यामा-श्याम के परिकर सहित दर्शन हो गए,एक पल में ही सबकुछ बदलगया. कहाँ तो गुरु जी को ले जाने के लिए आये थे, अब कह रहे है, कि मुझे राज्य से कोई काम नहीं मै अब वृंदावन सेनहीं जाऊँगा.अब तो बड़ी समस्या हो गयी,राजा ही जब वैरागी हो गया तो राज्य कैसे चलेगा,सबने गुरुदेव से प्रार्थना करि,गुरुदेव ने मधुकर शाह को आशीर्वाद देते हुए कहा - राजन! जाओ तुम जहाँ तक जाओगे तुम्हे कभी वृंदावन का वियोग नहीं होगा यहाँ से लेकर तुम्हारे राज्य तक वृंदावन का स्वरुप तुम्हारे लिए प्रकट रहेगा,सच है गुरुदेव क्या नहीं कर सकते.इस प्रकार संत ने व्रज की महिमा प्रकट की.

   🙏🏻बृज रसिक श्याम सुन्दर गोस्वामी🙏🏻

Tuesday, 15 November 2016

बिहारिन देव जु चरित्र भाग 1

💐💐निताई गौर हरि बोल💐💐

क्रमशः से आगे.....

क्रम 5⃣
            🌸ब्रज भक्तमाल 🌸
             🌿प्रथम खण्ड🌿
         🌸श्री बिहारिन देव जू🌸
        ( कालावधि 1504-1602,)
       
🌸 चरित्र 🌸

हौ तो और स्वरुप पिछानौ नही, हरिदास बिना हरि को है कहाँ को ।।

                      🌿स्वामी हरिदास जी महाराज के निकुंज गमन के पश्चात विट्ठल विपुल देव जी अपने गुरु के वियोग में केवल 7 दिन में ही उनके अनुगामी हो गए तब उस नित्य बिहार की उपासना की धुरी को बिहारिन देव जी ने संभाला। स्वामी बिहारिन देव जी ने बहुत वाणियों की रचना की उनके साहित्य को दो भागों में विभाजित किया गया ।

सिद्धांत साहित्य
रस साहित्य
                     🌿 एक बार आप यमुना स्नान के लिए गए वहां यमुना पुलिन पर दिव्य लीला के दर्शन करते हुए अपने देह सुध को भूल कर निज सखी स्वरूप में, प्रिया लाल जी को पद गा कर सुनाने लगे-

" विहरत लाल- बिहारिन  दोऊ श्री यमुना के तीरै -तीरै…....."

                       🌿इस तुक को गाते हुए ही आपको निराहार जमुना तट पर तीन दिन व्यतीत हो गए और इधर निधिवन राज में विराजमान बिहारी जी की सेवा ही नहीं हुई। ऐसी लीलाओं में निरंतर डूबे रहते थे। तब सेवा में व्यवधान जानकर बिहारी जी की सेवा अन्य को प्रदान की।

                 🌿तब बिहारी जी की सेवा भली-भांति होने लगी श्री बिहारिन देव जी ने वृंदावन रस का अनुपम वर्णन किया है।

                       🌿एक बार सुहावनी शरद ऋतु का समय था निधिवन का सौंदर्य सीमा को तोड़ रहा था।  नित्य केलि  रस के मत मधुप श्री बिहारिन देवजी नेत्र मूंदकर प्रिया प्रीतम की कुंज क्रीडा के अवलोकन में निमग्न हो रहे थे।  उसी समय अपने सखाओं के साथ खेलते हुए त्रिभुवन मोहन श्याम सुंदर वहां आ पहुंचे।  सभी स्खाओं ने स्वामी बिहारिन देव जी को इस प्रकार नयन बंद किए देखा तो उनका कोतूहल जागृत हो उठा।  श्री कृष्ण से पूछा ही बैठे -

" अरे कन्हैया !  देख तो वु कौन बाबाजी आंख मीच के बैठयौ ऐ?"

                        🌿 श्याम सुंदर ने उन्हें कोई प्रोत्साहन न  देते हुए कहा- " रहन दे, तोय का परी। "  अपनौ भजन करन दै। अब तो सारे सखा मिलकर पीछे ही पड़ गये-

" नायँ भैया ! नैक चल तो सई ।  जाते कछु बातचीत करिगे ।"

                    🌿 सखाओं के हठ के आगे भला नंदनंदन की क्या चलती ? उन्हें स्वामी बिहारिन देव जी के पास आना ही पड़ा । आकर आवाज लगायी- " ओ बाबा! नैक आँख तो खोल ।"  दो तीन आवाजों का तो कुछ पता ही नहीं चला,  जब सब ने मिलकर जोर से पुकारा तो आपका ध्यान इधर आकर्षित हुआ । पर नेत्र बंद किए ही बोले- " कौन हो?  क्या बात है भाई ?

                    🌿श्री नंदनंदन बोले - " मैं बुई हूं, जाय सब लोग, माखन चोर, चितचोर, गोपीजन वल्लभ कहै हैं। " स्वामी बिहारिन देव जी बोले - "तो तिहारे संग हमारे स्वामी जी हु है का ?" श्यामसुंदर बोले - " बु तो है नाय पर सबरे सखा मेरे संग हैं।"  स्वामी बिहारिन देव जी बोले - " तो आप जिनके चित वित् को ब्रज में नित हरण करौ तहाँई जाऔ ।  हम तो श्री हरिदासी के अंक में विराजवे वारे। जुगल के रस के अनन्य है। वाके बिना हम काहूँ को नाय देखै । इन्है ही जानै।

                           🌿श्री स्वामी बिहारिन देव जी लगभग 98 वर्ष की आयु में नित्य निकुंज - क्रीड़ा  का आनंद लेते हुए स्वामी जी महाराज के नित्य सानिध्य को प्राप्त किया।  संप्रदाय में इनको श्री जी का स्वरुप बताते हैं।  जिस प्रकार स्वामी जी ने श्यामा श्याम को लाड लगाया श्यामा जू को प्रधान मान कर । उसी प्रकार स्वामी जी को लाड लड़ाने के लिए श्रीजी स्वयं श्री बिहारिन देव के रूप में प्रकट हुई और लाड लडाया।

👉 श्री बिहारिन देव जी का चरित्र यही विश्राम लेता है 🙏आगामी अंक छः  में हम श्री कृष्णदास् कविराज् जी के चरित्र का गुणगान करेंगे

क्रमशः....

✍🏻प्रस्तुति: नेह किंकरी नीरू अरोड़ा
📚 स्रोत :    ब्रज भक्तमाल

Wednesday, 2 November 2016

नामदेव चरित्र

जन्म - संत नामदेव का जन्म 26अक्तूबर,1270 ई.को महाराष्ट्र में नरसीबामनी नामक गांव में हुआ.इनके पिता का नाम दामाशेट था और माता का नाम गोणाई था.कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान पण्ढरपुर मानते हैं.दामाशेट बाद में पण्ढरपुर आकर विट्ठल की मूर्ति के उपासक हो गए थे.इनका पैतृक व्यवसाय दर्जी का था.
बचपन - अभी नामदेव पांच वर्ष के थे.तब इनके पिता विट्ठल की मूर्ति को दूध का भोग लगाने का कार्य नामदेव को सौंप कर कहीं बाहर चले गए.बालक नामदेव को पता नहीं था कि विट्ठल की मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावनात्मक भोग लगवाया जाता है.नामदेव ने मूर्ति के आगे पीने को दूध रखा.मूर्ति ने दूध पीया नहीं, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गए कि जब तक विट्ठल दूध नहीं पीएंगे, वह वहां से हटेंगे नहीं.कहते हैं हठ के आगे विवश हो विट्ठल ने दूध पी लिया.
जब मंदिर का मुह घूमकर नामदेव की ओर हो गया
एक बार संत नामदेव शिवरात्रि के अवसर पर एक मंदिर में शिव के दर्शन के लिए गये.तभी पंडितो का समाज आया, नीची जाति के लोगो को भजन करते देख उन्हें अच्छा नहीं लगा इसलिए शिव के सामने इनको कीर्तन करता देख पंडितों ने इन्हें वहाँ से हटकर मंदिर के पीछे जाकर भजन कीर्तन करने को कहा, नामदेव जी मंदिर के पीछे चले गये तथा कीर्तन करने लगे. वहाँ एक चमत्कार हो गया और मन्दिर का गर्भ गृह घूमकर नामदेव जी के सामने हो गया.
कुत्ते में किये विट्टल नाथ के दर्शन
एक समय आप भजन कर रहे थे तो एक कुत्ता आकर रोटी उठाकर ले भगा. नामदेव जी उस कुत्ते के पीछे घी का कटोरा लिए भागे और कहने लगे भगवान रुखी मत खाओ साथ में घी भी लेते जाओ. जब भगाते भागते थक गए तो रूककर रोने लगे,और जैसे ही रोये वसे ही नामदेव का भाव देखकर भगवान को कुत्ते में से प्रगट होना पडा.
भक्ति की शक्ति
नामदेव जी संत ज्ञानेश्वर और अन्य संतों के साथ भारत भ्रमण को गए. मण्डली ने सम्पूर्ण भारत के तीर्थों की यात्रा की,भ्रमण करते करते जब मण्डली मारवाड के रेगिस्तान में पहुंची. तो सभी को बहुत प्यास लगी. फिर एक कुआ मिला पर उस का पानी बहुत गहरा था. और पानी निकालने का कोई साधन भी नहीं था.
ज्ञानेश्वर जी अपनी लघिमा सिद्धि के द्वारा पक्षी बनकर पानी पीकर आ गए.संत ज्ञानेश्वर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और नामदेव जी सगुण साकार ब्रह्म को भजते थे. नामदेव जी ने वहीँ पर कीर्तन आरंभ किया और भगवान को पुकारने लगे. कुआ पानी से भरकर बहने लगा. सभी ने अपनी प्यास बुझाई. यह कुआ आज भी बीकानेर से १० मील दूर कलादजी में मौजूद है.
दीक्षा - बडा होने पर इनका विवाह राजाबाई नाम की कन्या से कर दिया गया.इनके चार पुत्र हुए तथा एक पुत्री.इनकी सेविका जनाबाई ने भी श्रेष्ठ अभंगों की रचना की.पढंरपुर से पचास कोस की दूरी पर औढियानागनाथ के शिव मंदिर में रहने वाले विसोबाखेचर को इन्होंने अपना गुरु बनाया.संत ज्ञानदेव और मुक्ताबाई के सान्निध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए.
संत ज्ञानेश्वर का समाधि लेना
ज्ञानदेव से इनकी संगति इतनी प्रगाढ हुई कि ज्ञानदेव इन्हें लंबी तीर्थयात्रा पर अपने साथ ले गए और काशी,अयोध्या,मारवाड (राजस्थान) तिरूपति,रामेश्वरमआदि के दर्शन-भ्रमण किए.फिर सन् 1296 में आलंदी में ज्ञानदेव ने समाधि ले ली और तुरंत बाद ज्ञानदेव के बडे भाई तथा गुरु ने भी योग क्रिया द्वारा समाधि ले ली.इसके एक महीने बाद ज्ञानदेव के दूसरे भाई सोपानदेव और पांच महीने पश्चात मुक्तबाई भी समाधिस्थ हो गई.
नामदेव अकेले हो गए.उन्होंने शोक और विछोह में समाधि के अभंग लिखे.इस हृदय विदारक अनुभव के बाद नामदेव घूमते हुए पंजाब के भट्टीवालस्थान पर पहुंचे.फिर वहां घुमान(जिला गुरदासपुर) नामक नगर बसाया.तत्पश्चात मंदिर बना कर यहीं तप किया और विष्णुस्वामी,परिसाभागवते,जनाबाई,चोखामेला,त्रिलोचन आदि को नाम-ज्ञान की दीक्षा दी.
संत नामदेव अपनी उच्चकोटि की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए ही विख्यात हुए.चमत्कारों के सर्वथा विरुद्ध थे.वह मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है.तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार) की सेवा करना ही सच्ची पूजा है.इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है.
समाधि - 80 वर्ष की आयु तक इस संसार में गोविंद के नाम का जप करते-कराते सन् 1350ई. में नामा स्वयं भी इस भवसागर से पार चले गए.

Tuesday, 18 October 2016

भक्ति और सन्त निष्ठा , सन्त रविदास

*भक्ति और संत निष्ठां*

प्रभु को पाना है तो प्रेम की गली में से गुजरना है।और प्रेम की गली इतनी पतली है कि दो उसमें चल ही नहीं सकते हमें एक होना ही है।

यह प्रसंग एक राजा की जिन्दगी का है, उसका नाम था राजा पीपा। उसने दुनिया में जो कुछ इन्सान पाना चाहता है, वो सब कुछ पाया था, महल, हीरे-जवाहरात, नौकर-चाकर, सब उसका आदेश मानते थे।

इतना सब कुछ पाने के बावजूद अचानक एक दिन उसे लगा कि कुछ कमी है, कुछ ऐसा है जो नहीं है।अंदर एक तलब-सी जग गई प्रभु को पाने की। अब राजा कभी एक महापुरुष के पास जाएं, कभी दूसरे के पास, पर प्रभु को पाने का रास्ता मिले ही नहीं।

राजा बड़ा निराश था तब किसी ने बताया कि एक संत हैं रविदास जी महाराज! आप उनके पास जाएं।

राजा पीपा संत रविदास जी के पास पहुँचे।
वहाँ देखा कि वो एक बहुत छोटी-सी झोपड़ी में रहते थे-भयानक गरीबी, उस झोपड़ी में तो कुछ था ही नहीं।

राजा को लगा, ये तो खुद ही झोपड़ी में जी रहे हैं, यहाँ से मुझे क्या मिलेगा।

लेकिन वहाँ पहुँच ही गए थे तो अन्दर भी गए और राजा ने संत रविदास जी को प्रणाम किया।

संत रविदास जी ने पूछा, किस लिए आए हो?

राजा ने इच्छा बता दी, प्रभु को पाना चाहता हूँ।

उस समय संत रविदास महाराज एक कटोरे में चमड़ा भिगो रहे थे-मुलायम करने के लिए, तो उन्होंने कहा, ठीक है, अभी बाहर से आए हो थके होगे, प्यास लगी होगी लो तब तक यह जल पियो।

कह कर वही चमड़े वाला कटोरा राजा की ओर बढ़ा दिया।

राजा ने सोचा, ये क्या कर दिया कटोरे में पानी है, उसमें चमड़ा डला हुआ है, वो गन्दगी से भरा हुआ है, उसको कैसे पी लूँ?

फिर लगा कि अब यहाँ आ गया हूँ, सामने बैठा हूँ तो करूँ क्या?
इन संत जी का आग्रह कैसे ठुकराऊँ ?

उस समय बिजली होती नहीं थी, झोपड़ी में अन्धेरा था, सो राजा ने मुँह से लगाकर सारा पानी अपने कपडो के अन्दर उडेल दिया और पीये बगैर वहाँ से चला आया।

वापस घर आ कर उसने कपडे उतारे धोबी को बुलाया और कहा कि इसको धो दो।

धोबी ने राजा का वो कपडा अपनी लड़की को दे दिया धोने के लिए।

लड़की उसे ज्यों-ज्यों धोने लगी, उस पर प्रभु का रंग चढ़ना शुरू हो गया।

उसमें मस्ती आनी शुरू हो गई और इतनी मस्ती आनी शुरू हो गई कि आस-पास के दूसरे लोग भी उसके साथ आ कर प्रभु के भजन मे गाने-नाचने लगे।

धोबी की लड़की बड़ी मशहूर भक्तिन हो गई।

अब धीरे-धीरे खबर राजा के पास भी पहुँची। राजा उससे भी मिलने पहुँचा, बोला कि कुछ मेरी भी मदद कर दो।

धोबी की लड़की ने बताया कि जो कपडा आपने भेजा था, मैं तो उसी को साफ कर रही थी, तभी से लौ लग गई है, मेरी रूह अन्दर की ओर उड़ान कर रही है।

राजा को सारी बात याद आ गई और राजा भागा- भागा फिर संत रविदास जी महाराज के पास गया और उनके पैरों में पड़ गया।

फिर रविदास महाराज ने उसको नाम की देन दी।

जब तक इन्सान अकिंचन न बन जाए, छोटे से भी छोटा, तुच्छ से भी तुच्छ न हो जाये, तब तक नम्रता नहीं आती।
और जब तक विनम्र न हो जायें, प्रभु नहीं मिल सकते।
हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे राम
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Sunday, 16 October 2016

श्री सनातन जी और पारस पत्थर

श्री सनातन जी और पारस पत्थर
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सनातन जी अपना सब कुछ दान करके महाप्रभु के सेवक बन गये थे और उनकी आज्ञा से वृन्दावन मे भक्ति का प्रचार करते थे.सनातन जी एक दिन यमुना में स्नान करने के निमित्त जा रहे थे रास्ते में एक पारस पत्थर का टुकडा़ इन्हें पडा़ मिला, इन्होने उसे वही धूलि में ढक दिया.
 
अकस्मात उसी दिन एक ब्राहाण उनके पास आकर धन की याचना करने लगा इन्होने बहुत कहा -भाई हम भिक्षुक है माँगकर खाते है,भला हमारे पास धन कहाँ है किन्तु वह कहने लगा – महाराज! मैंने धन की कामना से ही अनेको वर्षो तक शिव जी की आराधना की,उन्होंने संतुष्ट होकर रात्रि के समय स्वप्न में मुझसे कहा -हे ब्राहाण तू जिस इच्छा से मेरा पूजन कर रहा है वह इच्छा तेरी वृन्दावन में सनातन जी गोस्वामी के समीप जाने से पूरी होगी बस उन्ही के स्वपन से में आप की शरण में आया हूँ.

इस पर सनातन जी को उस पारस पत्थर की याद आई उन्होंने कहा -अच्छी बात है मेरे साथ यमुना किनारे आओ,दूर से ही इशारा करते हुए उन्होंने कहा -यहाँ कही पारस पत्थर है उस ब्राहमण ने बहुत ढूँढा,थोड़ी देर बाद उसे पारस पत्थर मिल गया उसी समय उसने एक लोहे का टुकड़े से उसे छुआकर उसकी परीक्षा की देखते ही देखते लोहा सोना बन गया ब्राहाण प्रसन्न होकर घर चल दिया.

वह आधे रास्ते तक पँहुचा की उसका विचार एकदम बदल गया  उसने सोचा जो महापुरुष घर-घर जाकर टुकडे माँगकर खाता है और संसार की इतनी बहुमूल्य समझी जाने वाली इस मणि को स्पर्श तक नहीं करता अवश्य ही उसके पास इस असाधारण पत्थर से बढकर भी कोई और वस्तु है मै तो उनसे उसी को प्राप्त करुँगा !

इस पारस को देकर तो उन्होंने मुझे बहलाया है, यह सोच कर वह लौटकर फिर इनके समीप आया और चरणों में गिरकर रो-रोकर अपनी मनोव्यथा सुनाई उसके सच्चे वैराग्य को देखकर इन्होने पारस को यमुना जी में फिकवा दिया और उसे अमूल्य हरिनाम का उपदेश किया जिससे वह कुछ काल में ही संत बन गया.

किसी ने सच ही कहा है –
“ पारस में अरु संत में, संत अधिक कर मान |
   वह लोहा सोना करै यह करै आपु समान ||”

!! जय जय श्री राधे !!

Friday, 14 October 2016

जगन्नाथदास महाराज , भगवान द्वारा शौच आदि सेवा

संत कहते हैं  :- भगवान बोले मैं भक्तन को दास

एक संत थे जिनका नाम था जगन्नाथदास महाराज। वे भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते थे। वे जब वृध्द हुए तो थोड़े बीमार पड़ने लगे। उनके मकान की उपरी मंजिल पर वे स्वयं और नीचे उनके शिष्य रहेते थे। रात को एक-दो बार बाबा को दस्त लग जाती थी, इसलिए "खट-खट" की आवाज करते तो कोई शिष्य आ जाता और उनका हाथ पकड़कर उन्हें शौचालय मै ले जाता। बाबा की सेवा करनेवाले वे शिष्य जवान लड़के थे।

एक रात बाबा ने खट-खटाया तो कोई आया नही। बाबा बोले "अरे, कोई आया नही ! बुढापा आ गया, प्रभु !"
इतने में एक युवक आया और बोला "बाबा ! मैं आपकी मदद करता हूं"

बाबा का हाथ पकड़कर वह उन्हें शौचालय मै ले गया। फिर हाथ-पैर घुलाकर बिस्तर पर लेटा दिया।
जगन्नाथदासजी बोले "यह कैसा सेवक है की इतनी जल्दी आ गया ! इसके स्पर्ष से आज अच्छा लग रहा है, आनंद-आनंद आ रहा है"।

जाते-जाते वह युवक लौटकर आ गया और बोला "बाबा! जब भी तुम्ह ऐसे 'खट-खट' करोगे न, तो मैं आ जाया करूंगा। तुम केवल विचार भी करोगे की 'वह आ जाए' तो मैं आ जाया करूँगा"

बाबा: "बेटा तुम्हे कैसे पता चलेगा?"
युवक: "मुझे पता चल जाता है"
बाबा: "अच्छा ! रात को सोता नही क्या?"
युवक: "हां, कभी सोता हूं, झपकी ले लेता हूं। मैं तो सदा सेवा मै रहता हूं"

जगन्नाथ महाराज रात को 'खट-खट' करते तो वह युवक झट आ जाता और बाबा की सेवा करता। ऐसा करते करते कई दिन बीत गए। जगन्नाथदासजी सोचते की 'यह लड़का सेवा करने तुरंत कैसे आ जाता है?'

एक दिन उन्होंने उस युवक का हाथ पकड़कर पूछा की "बेटा ! तेरा घर किधर है?"
युवक: "यही पास मै ही है। वैसे तो सब जगह है"
बाबा: "अरे ! ये तू क्या बोलता है, सब जगह तेरा घर है?"

बाबा की सुंदर समाज जगी। उनको शक होने लगा की 'हो न हो, यह तो अपनेवाला ही, जो किसीका बेटा नही लेकिन सबका बेटा बनने को तैयार है, बाप बनने को तैयार है, गुरु बनने को तैयार है, सखा बनने को तैयार है...'

बाबा ने कसकर युवक का हाथ पकड़ा और पूछा "सच बताओ, तुम कौन हो?"
युवक: "बाबा ! छोडिये, अभी मुजे कई जगह जाना है"
बाबा: "अरे ! कई जगह जाना है तो भले जाना, लेकिन तुम कौन हो यह तो बताओ"
युवक: "अच्छा बताता हूं"

देखते-देखते भगवन जगन्नाथ का दिव्य विग्रह प्रकट हो गया।

"देवधि देव ! सर्वलोके एकनाथ ! सभी लोकों के एकमात्र स्वामी ! आप मेरे लिए इतना कष्ट सहते थे ! रात्रि को आना, शौचालय ले जाना, हाथ-पैर धुलाना..प्रभु ! जब मेरा इतना ख्याल रख रहे थे तो मेरा रोग क्यो नही मिटा दिया ?"

तब मंद मुस्कुराते हुए भगवन बोले "महाराज ! तीन प्रकार के प्रारब्ध होते है: मंद, तीव्र, तर-तीव्र, मंद प्रारब्ध। सत्कर्म से, दान-पुण्य से भक्ति से मिट जाता है। तीव्र प्रारब्ध अपने पुरुषार्थ और भगवन के, संत महापुरुषों के आशीर्वाद से मिट जाता है। परन्तु तर-तीव्र प्रारब्ध तो मुझे भी भोगना पड़ता है। रामावतार मै मैंने बलि को छुपकर बाण मारा था तो कृष्णावतार में उसने व्याध बनकर मेरे पैर में बाण मारा।

तर-तीव्र प्रारब्ध सभीको भोगना पड़ता है। आपका रोग मिटाकर प्रारब्ध दबा दूँ, फिर क्या पता उसे भोगने के लिए आपको दूसरा जन्म लेना पड़े और तब कैसी स्तिथि हो जाय? इससे तो अच्छा है अभी पुरा हो जाय...और मुझे आपकी सेवा करने में किसी कष्ट का अनुभव नही होता, भक्त मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन का दास"

"प्रभु ! प्रभु ! प्रभु ! हे देव हे देव ! ॥" कहेते हुए जगन्नाथ दास महाराज भगवान के चरणों मै गिर पड़े और भावान्मधुर्य मै भाग्वात्शंती मै खो गए। भगवान अंतर्धान हो गए।

शरण में तेरी रे दीनानाथ

Tuesday, 11 October 2016

मान कुँवरी जी की भक्ती

(((( मान कुँवरी जी की भक्ती )))))).एक सेठ की बेटी मान कुँवरी दस वर्ष की अवस्था में विधवा हो गई।.थोड़े ही दिनों के पश्चात् श्री गुसांई जी गुजरात पधारे तो इस मान कुँवरी को ब्रह्म सम्बंध कराया इसके यहां श्री मदन मोहन जी की सेवा पधराई ।.यह श्री ठाकुर जी की सेवा करने लगी । इस बाई ने श्री मदन मोहन जी की जीवन पर्यन्त सेवा की ।.इसने श्री मदन मोहन जी के स्वरूप के अलावा अन्य किसी स्वरूप के दर्शन भी नहीं किए । यह सेवा छोड़कर कभी घर से बाहर भी नहीं गई ।.जैसे श्री मदन मोहन जी है वैसे सभी के यहाँ श्री ठाकुर जी का स्वरूप होगा, यह मन में निश्चय करके रखती थी|.जब मानकुँवरी साठ वर्ष की हुई तो इसके पिता का देवलोक हो गया । अत: वह मनुष्य रखकर सेवा करने लगी ।.एक दिन एक विरक्त वैष्णव उस गाँव में आया। शीतकाल का समय था । मानकुँवरी के घर आकर ठहरा था|.उसने अपने श्री ठाकुर जी की झाँपी मानकुँवरी को दी और स्वयं तालाब पर स्नान करने चला गया ।.मानकुँवरी बाई ने श्री ठाकुर जी को जगाया, उसकी झाँपी में श्री ठाकुर जी बाल कृष्ण जी थे ।.उस बाई ने श्री मदन मोहन जी के अलावा अन्य किसी भी स्वरूप के दर्शन नहीं किये थे ।.वह विचार करने लगी । कि ठण्ड के कारण श्री ठाकुर जी सिकुड़ गए है, ठण्ड बहुत पड़ती है| इस वैष्णव ने श्री ठाकुर जी के लिए ठण्ड का कोई उपचार नहीं रखा है ।.उस बाई के नेत्रों से जल प्रवाहित होने लगा । उसके मन में बहुत ताप हुआ, वह अंगीठी लेकर बैठ गई ।.तेल में अनेक प्रकार की गरम औषध डालकर तेल को गर्म किया और सुहाते - सुहाते तेल से श्री ठाकुर जी के हाथ पैर मींढने लगी ।.उसने समझा श्री ठाकुर जी को बहुत श्रम हुआ है। उसने श्रम के लिए श्री ठाकुर जी से क्षमा याचना की ।.उसकी प्रार्थना सुनकर तथा उसके शुद्धभाव को देखकर श्री बाल कृष्ण भगवान श्री मदन मोहन जी के स्वरूप में हो गए। डोकरी बाई बहुत प्रसन्न हुई ।.डोकरी ने रसोई करके भोग रखा, उस वैष्णव ने आकर दर्शन किए । श्री ठाकुर जी को शीत के उपचार के रूप में रजाई ओढा रखी थी अत: वह वैष्णव समझ ही न सका कि यह कौन से श्री ठाकुर जी हैं.वह वैष्णव वहाँ दस-पन्द्रह दिन रहा । वह जाने लगा तो बाई ने आग्रह किया कि शीत पड़ रही है श्री ठाकुर जी को श्रम होता है अत: शीतकाल यहीं व्यतीत करो । फाल्गुन में चले जाना।.उसने अपने श्री ठाकुर जी की झांपी को सँभाला । श्री बाल कृष्ण केस्थान पर श्री मदन मोहन जी के स्वरूप को देख कर वैष्णव ने मान कुँवरी बाई से झगडा किया,.वह बोला - "तुमने मेरे श्री ठाकुर जी को बदल लिया है ।".मानकुँवरी ने बहुत समझाया । अन्तत: झगडा श्री गोकुल तक पहुँचा । दोनों जने श्री गोकुल में श्री गुसांई जी के समक्ष उपस्थित हुए । श्री गुसांई जी ने दोनों की बातें सुनी ।.श्री गुसांई जी ने झांपी लेकर श्री ठाकुर जी को देखा ।.श्री ठाकुर जी ने श्री गुसांई जी से कहा - "मैं डोकरी के भाव के कारण बाल कृष्ण से मदन मोहन हुआ हूँ ।".इस डोकरी ने मेरे मदन मोहन स्वरूप के अलावा अन्य किसी स्वरूप के दर्शन ही नहीं किए हैं अत: इसके भाव में कोई विक्षेप न हो, मैं श्री मदन मोहन के स्वरूप में अवस्थित हूँ ।.श्री गुसांई जी ने उनका झगडा निपटा दिया| उन्होंने कहा - " ये हीतेरे श्री ठाकुर जी हैं ।".डोकरी ने उससे कहा- " तू श्री ठाकुर जी को ठण्ड में मारता है, ऐसे लोगों को श्री ठाकुर जी पधरा कर नहीं दिये जाने चाहिए।".श्री गुसांई जी डोकरी के शुद्ध भाव को देख कर हँसने लगे ।.वह वैष्णव उस डोकरी के पैरों में पड़ गया। उसने कहा - " मैं अब कहीं नहीं जाऊँगा, तुम्हारे यहाँ टहल करूँगा ।".वह मानकुँवरी बाई श्री यमुना जी का जल पान करके श्री नाथ जी के दर्शन करने गई । श्री नाथ जी के दर्शन करके अपने देश में जाकर श्री ठाकुर जी की सेवा करने लगी ।~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))~~~~~~~~~~~~~