Wednesday, 2 November 2016

नामदेव चरित्र

जन्म - संत नामदेव का जन्म 26अक्तूबर,1270 ई.को महाराष्ट्र में नरसीबामनी नामक गांव में हुआ.इनके पिता का नाम दामाशेट था और माता का नाम गोणाई था.कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान पण्ढरपुर मानते हैं.दामाशेट बाद में पण्ढरपुर आकर विट्ठल की मूर्ति के उपासक हो गए थे.इनका पैतृक व्यवसाय दर्जी का था.
बचपन - अभी नामदेव पांच वर्ष के थे.तब इनके पिता विट्ठल की मूर्ति को दूध का भोग लगाने का कार्य नामदेव को सौंप कर कहीं बाहर चले गए.बालक नामदेव को पता नहीं था कि विट्ठल की मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावनात्मक भोग लगवाया जाता है.नामदेव ने मूर्ति के आगे पीने को दूध रखा.मूर्ति ने दूध पीया नहीं, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गए कि जब तक विट्ठल दूध नहीं पीएंगे, वह वहां से हटेंगे नहीं.कहते हैं हठ के आगे विवश हो विट्ठल ने दूध पी लिया.
जब मंदिर का मुह घूमकर नामदेव की ओर हो गया
एक बार संत नामदेव शिवरात्रि के अवसर पर एक मंदिर में शिव के दर्शन के लिए गये.तभी पंडितो का समाज आया, नीची जाति के लोगो को भजन करते देख उन्हें अच्छा नहीं लगा इसलिए शिव के सामने इनको कीर्तन करता देख पंडितों ने इन्हें वहाँ से हटकर मंदिर के पीछे जाकर भजन कीर्तन करने को कहा, नामदेव जी मंदिर के पीछे चले गये तथा कीर्तन करने लगे. वहाँ एक चमत्कार हो गया और मन्दिर का गर्भ गृह घूमकर नामदेव जी के सामने हो गया.
कुत्ते में किये विट्टल नाथ के दर्शन
एक समय आप भजन कर रहे थे तो एक कुत्ता आकर रोटी उठाकर ले भगा. नामदेव जी उस कुत्ते के पीछे घी का कटोरा लिए भागे और कहने लगे भगवान रुखी मत खाओ साथ में घी भी लेते जाओ. जब भगाते भागते थक गए तो रूककर रोने लगे,और जैसे ही रोये वसे ही नामदेव का भाव देखकर भगवान को कुत्ते में से प्रगट होना पडा.
भक्ति की शक्ति
नामदेव जी संत ज्ञानेश्वर और अन्य संतों के साथ भारत भ्रमण को गए. मण्डली ने सम्पूर्ण भारत के तीर्थों की यात्रा की,भ्रमण करते करते जब मण्डली मारवाड के रेगिस्तान में पहुंची. तो सभी को बहुत प्यास लगी. फिर एक कुआ मिला पर उस का पानी बहुत गहरा था. और पानी निकालने का कोई साधन भी नहीं था.
ज्ञानेश्वर जी अपनी लघिमा सिद्धि के द्वारा पक्षी बनकर पानी पीकर आ गए.संत ज्ञानेश्वर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और नामदेव जी सगुण साकार ब्रह्म को भजते थे. नामदेव जी ने वहीँ पर कीर्तन आरंभ किया और भगवान को पुकारने लगे. कुआ पानी से भरकर बहने लगा. सभी ने अपनी प्यास बुझाई. यह कुआ आज भी बीकानेर से १० मील दूर कलादजी में मौजूद है.
दीक्षा - बडा होने पर इनका विवाह राजाबाई नाम की कन्या से कर दिया गया.इनके चार पुत्र हुए तथा एक पुत्री.इनकी सेविका जनाबाई ने भी श्रेष्ठ अभंगों की रचना की.पढंरपुर से पचास कोस की दूरी पर औढियानागनाथ के शिव मंदिर में रहने वाले विसोबाखेचर को इन्होंने अपना गुरु बनाया.संत ज्ञानदेव और मुक्ताबाई के सान्निध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए.
संत ज्ञानेश्वर का समाधि लेना
ज्ञानदेव से इनकी संगति इतनी प्रगाढ हुई कि ज्ञानदेव इन्हें लंबी तीर्थयात्रा पर अपने साथ ले गए और काशी,अयोध्या,मारवाड (राजस्थान) तिरूपति,रामेश्वरमआदि के दर्शन-भ्रमण किए.फिर सन् 1296 में आलंदी में ज्ञानदेव ने समाधि ले ली और तुरंत बाद ज्ञानदेव के बडे भाई तथा गुरु ने भी योग क्रिया द्वारा समाधि ले ली.इसके एक महीने बाद ज्ञानदेव के दूसरे भाई सोपानदेव और पांच महीने पश्चात मुक्तबाई भी समाधिस्थ हो गई.
नामदेव अकेले हो गए.उन्होंने शोक और विछोह में समाधि के अभंग लिखे.इस हृदय विदारक अनुभव के बाद नामदेव घूमते हुए पंजाब के भट्टीवालस्थान पर पहुंचे.फिर वहां घुमान(जिला गुरदासपुर) नामक नगर बसाया.तत्पश्चात मंदिर बना कर यहीं तप किया और विष्णुस्वामी,परिसाभागवते,जनाबाई,चोखामेला,त्रिलोचन आदि को नाम-ज्ञान की दीक्षा दी.
संत नामदेव अपनी उच्चकोटि की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए ही विख्यात हुए.चमत्कारों के सर्वथा विरुद्ध थे.वह मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है.तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार) की सेवा करना ही सच्ची पूजा है.इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है.
समाधि - 80 वर्ष की आयु तक इस संसार में गोविंद के नाम का जप करते-कराते सन् 1350ई. में नामा स्वयं भी इस भवसागर से पार चले गए.

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