Wednesday, 16 November 2016

हरिराम व्यास जु

राधे राधे
🌷🌷आज की "ब्रज रस धारा"🌷🌷
दिनांक 16/11/2016

'हरीराम व्यास'जी जिन्होंने राजा को दिव्य वृंदावन के स्वरुप का दर्शन कराया.व्यास जी ओरछा नरेश 'मधुकरशाह' के 'राजगुरु' थे. और'गौड़ संप्रदाय'के वैष्णव थे.ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे और सदा शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार रहतेएक बार जब ये वृंदावन आये और गोस्वामी हितहरिवंश जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा. गोसाईं जी ने नम्र भाव से यह पद कहा -यह जो एक मन बहुत ठौर करि कहि कौनै सचु पायो।जहँ तहँ बिपति जार जुवती ज्यों प्रगट पिंगला गायोयह पद सुनकर व्यास जी चेत गए और हितहरिवंश जी के अनन्य भक्त हो गए.और हितहरिवंश जी के शिष्य होकर राधावल्लभी हो गए.और मन में ठान लिया कि वृंदावन छोड़कर अन्यत्र कही भी कदम तक नहीं रखेगे.वृन्दावन में जिस प्रकार'निधिवनराज'स्वामी श्रीहरिदासजी की साधना स्थली है, श्रीहित हरिवंश महाप्रभुजी की'सेवाकुंज'साधना स्थली है, उसी प्रकार बनखण्डी से लोई बाजार जाते हुए सेवाकुंज के दक्षिण भाग से लगा‘किशोरवन’रसिक संत श्रीहरिरामव्यासजी की साधनास्थली है.हरि हम कब हवै हैं ब्रजवासीय।ठाकुर नन्दकिशोर हमारे, ठकुराइन राधा सी।कब मिलि हैं वे सखी सहैली, हरिवंशी हरिदासी।।वंशीवट की शीतल छैंया, सुभग नदी यमुना सी।इतनी आस व्यास की पुजवौ, वृन्दा विपिन विलासी।।जब ओरछा नरेश मधुकर शाह इन्हें लेने आये, तो इन्होने मना कर दिया.कि हम वृंदावन छोड़कर अन्यत्र नहीं जायेगे.तब उन्होंने प्रश्न किया -गुरुदेव! ऐसी कौन-सी विशेषता है वृंदावन में? ये मै मानता हूँ कि ये धाम है, पर भजन तो कही भी रहकर किया जा सकता है ना ? आप चलिए आपके भजन में कोई व्यवधान नहीं डालेगा.तब हरिराम व्यास जी ने उत्तर दिया -श्री धाम वृंदावन कारसमय स्वरुप यहाँ प्रकट है.इसलिए मै एक कदम भी बाहर नहीं निकाल सकता.राजा बोले -गुरुदेव !यदि कृपा हो जाए तो दास को भी उस चिन्मय,रसमय दिव्य स्वरुप के दर्शन करा दीजिये.तब व्यास जी ने राजा के सिर पर हाथ रखा, और फिर नरेश की तो मानो द्रष्टि ही बदल गई, दिव्य वृंदावन के साक्षात् दर्शन होने लगे, यही नहीं नित्य बिहार करते श्यामा-श्याम के परिकर सहित दर्शन हो गए,एक पल में ही सबकुछ बदलगया. कहाँ तो गुरु जी को ले जाने के लिए आये थे, अब कह रहे है, कि मुझे राज्य से कोई काम नहीं मै अब वृंदावन सेनहीं जाऊँगा.अब तो बड़ी समस्या हो गयी,राजा ही जब वैरागी हो गया तो राज्य कैसे चलेगा,सबने गुरुदेव से प्रार्थना करि,गुरुदेव ने मधुकर शाह को आशीर्वाद देते हुए कहा - राजन! जाओ तुम जहाँ तक जाओगे तुम्हे कभी वृंदावन का वियोग नहीं होगा यहाँ से लेकर तुम्हारे राज्य तक वृंदावन का स्वरुप तुम्हारे लिए प्रकट रहेगा,सच है गुरुदेव क्या नहीं कर सकते.इस प्रकार संत ने व्रज की महिमा प्रकट की.

   🙏🏻बृज रसिक श्याम सुन्दर गोस्वामी🙏🏻

Tuesday, 15 November 2016

बिहारिन देव जु चरित्र भाग 1

💐💐निताई गौर हरि बोल💐💐

क्रमशः से आगे.....

क्रम 5⃣
            🌸ब्रज भक्तमाल 🌸
             🌿प्रथम खण्ड🌿
         🌸श्री बिहारिन देव जू🌸
        ( कालावधि 1504-1602,)
       
🌸 चरित्र 🌸

हौ तो और स्वरुप पिछानौ नही, हरिदास बिना हरि को है कहाँ को ।।

                      🌿स्वामी हरिदास जी महाराज के निकुंज गमन के पश्चात विट्ठल विपुल देव जी अपने गुरु के वियोग में केवल 7 दिन में ही उनके अनुगामी हो गए तब उस नित्य बिहार की उपासना की धुरी को बिहारिन देव जी ने संभाला। स्वामी बिहारिन देव जी ने बहुत वाणियों की रचना की उनके साहित्य को दो भागों में विभाजित किया गया ।

सिद्धांत साहित्य
रस साहित्य
                     🌿 एक बार आप यमुना स्नान के लिए गए वहां यमुना पुलिन पर दिव्य लीला के दर्शन करते हुए अपने देह सुध को भूल कर निज सखी स्वरूप में, प्रिया लाल जी को पद गा कर सुनाने लगे-

" विहरत लाल- बिहारिन  दोऊ श्री यमुना के तीरै -तीरै…....."

                       🌿इस तुक को गाते हुए ही आपको निराहार जमुना तट पर तीन दिन व्यतीत हो गए और इधर निधिवन राज में विराजमान बिहारी जी की सेवा ही नहीं हुई। ऐसी लीलाओं में निरंतर डूबे रहते थे। तब सेवा में व्यवधान जानकर बिहारी जी की सेवा अन्य को प्रदान की।

                 🌿तब बिहारी जी की सेवा भली-भांति होने लगी श्री बिहारिन देव जी ने वृंदावन रस का अनुपम वर्णन किया है।

                       🌿एक बार सुहावनी शरद ऋतु का समय था निधिवन का सौंदर्य सीमा को तोड़ रहा था।  नित्य केलि  रस के मत मधुप श्री बिहारिन देवजी नेत्र मूंदकर प्रिया प्रीतम की कुंज क्रीडा के अवलोकन में निमग्न हो रहे थे।  उसी समय अपने सखाओं के साथ खेलते हुए त्रिभुवन मोहन श्याम सुंदर वहां आ पहुंचे।  सभी स्खाओं ने स्वामी बिहारिन देव जी को इस प्रकार नयन बंद किए देखा तो उनका कोतूहल जागृत हो उठा।  श्री कृष्ण से पूछा ही बैठे -

" अरे कन्हैया !  देख तो वु कौन बाबाजी आंख मीच के बैठयौ ऐ?"

                        🌿 श्याम सुंदर ने उन्हें कोई प्रोत्साहन न  देते हुए कहा- " रहन दे, तोय का परी। "  अपनौ भजन करन दै। अब तो सारे सखा मिलकर पीछे ही पड़ गये-

" नायँ भैया ! नैक चल तो सई ।  जाते कछु बातचीत करिगे ।"

                    🌿 सखाओं के हठ के आगे भला नंदनंदन की क्या चलती ? उन्हें स्वामी बिहारिन देव जी के पास आना ही पड़ा । आकर आवाज लगायी- " ओ बाबा! नैक आँख तो खोल ।"  दो तीन आवाजों का तो कुछ पता ही नहीं चला,  जब सब ने मिलकर जोर से पुकारा तो आपका ध्यान इधर आकर्षित हुआ । पर नेत्र बंद किए ही बोले- " कौन हो?  क्या बात है भाई ?

                    🌿श्री नंदनंदन बोले - " मैं बुई हूं, जाय सब लोग, माखन चोर, चितचोर, गोपीजन वल्लभ कहै हैं। " स्वामी बिहारिन देव जी बोले - "तो तिहारे संग हमारे स्वामी जी हु है का ?" श्यामसुंदर बोले - " बु तो है नाय पर सबरे सखा मेरे संग हैं।"  स्वामी बिहारिन देव जी बोले - " तो आप जिनके चित वित् को ब्रज में नित हरण करौ तहाँई जाऔ ।  हम तो श्री हरिदासी के अंक में विराजवे वारे। जुगल के रस के अनन्य है। वाके बिना हम काहूँ को नाय देखै । इन्है ही जानै।

                           🌿श्री स्वामी बिहारिन देव जी लगभग 98 वर्ष की आयु में नित्य निकुंज - क्रीड़ा  का आनंद लेते हुए स्वामी जी महाराज के नित्य सानिध्य को प्राप्त किया।  संप्रदाय में इनको श्री जी का स्वरुप बताते हैं।  जिस प्रकार स्वामी जी ने श्यामा श्याम को लाड लगाया श्यामा जू को प्रधान मान कर । उसी प्रकार स्वामी जी को लाड लड़ाने के लिए श्रीजी स्वयं श्री बिहारिन देव के रूप में प्रकट हुई और लाड लडाया।

👉 श्री बिहारिन देव जी का चरित्र यही विश्राम लेता है 🙏आगामी अंक छः  में हम श्री कृष्णदास् कविराज् जी के चरित्र का गुणगान करेंगे

क्रमशः....

✍🏻प्रस्तुति: नेह किंकरी नीरू अरोड़ा
📚 स्रोत :    ब्रज भक्तमाल

Wednesday, 2 November 2016

नामदेव चरित्र

जन्म - संत नामदेव का जन्म 26अक्तूबर,1270 ई.को महाराष्ट्र में नरसीबामनी नामक गांव में हुआ.इनके पिता का नाम दामाशेट था और माता का नाम गोणाई था.कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान पण्ढरपुर मानते हैं.दामाशेट बाद में पण्ढरपुर आकर विट्ठल की मूर्ति के उपासक हो गए थे.इनका पैतृक व्यवसाय दर्जी का था.
बचपन - अभी नामदेव पांच वर्ष के थे.तब इनके पिता विट्ठल की मूर्ति को दूध का भोग लगाने का कार्य नामदेव को सौंप कर कहीं बाहर चले गए.बालक नामदेव को पता नहीं था कि विट्ठल की मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावनात्मक भोग लगवाया जाता है.नामदेव ने मूर्ति के आगे पीने को दूध रखा.मूर्ति ने दूध पीया नहीं, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गए कि जब तक विट्ठल दूध नहीं पीएंगे, वह वहां से हटेंगे नहीं.कहते हैं हठ के आगे विवश हो विट्ठल ने दूध पी लिया.
जब मंदिर का मुह घूमकर नामदेव की ओर हो गया
एक बार संत नामदेव शिवरात्रि के अवसर पर एक मंदिर में शिव के दर्शन के लिए गये.तभी पंडितो का समाज आया, नीची जाति के लोगो को भजन करते देख उन्हें अच्छा नहीं लगा इसलिए शिव के सामने इनको कीर्तन करता देख पंडितों ने इन्हें वहाँ से हटकर मंदिर के पीछे जाकर भजन कीर्तन करने को कहा, नामदेव जी मंदिर के पीछे चले गये तथा कीर्तन करने लगे. वहाँ एक चमत्कार हो गया और मन्दिर का गर्भ गृह घूमकर नामदेव जी के सामने हो गया.
कुत्ते में किये विट्टल नाथ के दर्शन
एक समय आप भजन कर रहे थे तो एक कुत्ता आकर रोटी उठाकर ले भगा. नामदेव जी उस कुत्ते के पीछे घी का कटोरा लिए भागे और कहने लगे भगवान रुखी मत खाओ साथ में घी भी लेते जाओ. जब भगाते भागते थक गए तो रूककर रोने लगे,और जैसे ही रोये वसे ही नामदेव का भाव देखकर भगवान को कुत्ते में से प्रगट होना पडा.
भक्ति की शक्ति
नामदेव जी संत ज्ञानेश्वर और अन्य संतों के साथ भारत भ्रमण को गए. मण्डली ने सम्पूर्ण भारत के तीर्थों की यात्रा की,भ्रमण करते करते जब मण्डली मारवाड के रेगिस्तान में पहुंची. तो सभी को बहुत प्यास लगी. फिर एक कुआ मिला पर उस का पानी बहुत गहरा था. और पानी निकालने का कोई साधन भी नहीं था.
ज्ञानेश्वर जी अपनी लघिमा सिद्धि के द्वारा पक्षी बनकर पानी पीकर आ गए.संत ज्ञानेश्वर निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और नामदेव जी सगुण साकार ब्रह्म को भजते थे. नामदेव जी ने वहीँ पर कीर्तन आरंभ किया और भगवान को पुकारने लगे. कुआ पानी से भरकर बहने लगा. सभी ने अपनी प्यास बुझाई. यह कुआ आज भी बीकानेर से १० मील दूर कलादजी में मौजूद है.
दीक्षा - बडा होने पर इनका विवाह राजाबाई नाम की कन्या से कर दिया गया.इनके चार पुत्र हुए तथा एक पुत्री.इनकी सेविका जनाबाई ने भी श्रेष्ठ अभंगों की रचना की.पढंरपुर से पचास कोस की दूरी पर औढियानागनाथ के शिव मंदिर में रहने वाले विसोबाखेचर को इन्होंने अपना गुरु बनाया.संत ज्ञानदेव और मुक्ताबाई के सान्निध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए.
संत ज्ञानेश्वर का समाधि लेना
ज्ञानदेव से इनकी संगति इतनी प्रगाढ हुई कि ज्ञानदेव इन्हें लंबी तीर्थयात्रा पर अपने साथ ले गए और काशी,अयोध्या,मारवाड (राजस्थान) तिरूपति,रामेश्वरमआदि के दर्शन-भ्रमण किए.फिर सन् 1296 में आलंदी में ज्ञानदेव ने समाधि ले ली और तुरंत बाद ज्ञानदेव के बडे भाई तथा गुरु ने भी योग क्रिया द्वारा समाधि ले ली.इसके एक महीने बाद ज्ञानदेव के दूसरे भाई सोपानदेव और पांच महीने पश्चात मुक्तबाई भी समाधिस्थ हो गई.
नामदेव अकेले हो गए.उन्होंने शोक और विछोह में समाधि के अभंग लिखे.इस हृदय विदारक अनुभव के बाद नामदेव घूमते हुए पंजाब के भट्टीवालस्थान पर पहुंचे.फिर वहां घुमान(जिला गुरदासपुर) नामक नगर बसाया.तत्पश्चात मंदिर बना कर यहीं तप किया और विष्णुस्वामी,परिसाभागवते,जनाबाई,चोखामेला,त्रिलोचन आदि को नाम-ज्ञान की दीक्षा दी.
संत नामदेव अपनी उच्चकोटि की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए ही विख्यात हुए.चमत्कारों के सर्वथा विरुद्ध थे.वह मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है.तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार) की सेवा करना ही सच्ची पूजा है.इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है.
समाधि - 80 वर्ष की आयु तक इस संसार में गोविंद के नाम का जप करते-कराते सन् 1350ई. में नामा स्वयं भी इस भवसागर से पार चले गए.